________________ चित्त सारथी का श्रावस्ती की ओर प्रयाण ] [ 133 कुणालाए जणवए सावत्थी नाम नयरी होत्था रिद्धस्थिमियसमिद्धा जाव' पडिरूवा / तीसे णं सावत्थीए णगरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसोभाए कोटुए नाम चेइए होत्था, पोराणे जाव पासादीए / तत्थ णं सावत्थीए नयरीए पएसिस्स रन्नो अंतेवासी जियसत्तू नाम राया होत्था, मयाहिमवंत जाव विहरइ। २१०-उस काल और उस समय में कुणाला नामक जनपद-देश था। वह देश वैभवसंपन्न, स्तिमित-स्वपरचक्र (शत्रुओं) के भय से मुक्त और धन-धान्य से समृद्ध था। ___ उस कुणाला जनपद में श्रावस्ती नाम की नगरी थी, जो ऋद्ध, स्तिमित, समृद्ध यावत् (देखने योग्य, मन को प्रसन्न करने वाली, अभिरूप-मनोहर और) प्रतिरूप-अतीव मनोहर थी। उस श्रावस्ती नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा (ईशान दिक्कोण) में कोष्ठक नाम का चैत्य था। यह चैत्य अत्यन्त प्राचीन यावत् प्रतिरूप था / उस श्रावस्ती नगरी में प्रदेशी राजा का अन्तेवासी जैसा अर्थात् अधीनस्थ-आज्ञापालक जितशत्रु नामक राजा था, जो महाहिमवन्त आदि पर्वतों के समान प्रख्यात था / विवेचन-दीघनिकाय के 'महासुदस्सन सुत्तंत' में श्रावस्ती नगरी को उस समय का एक महानगर बताया है। प्राचीन भूगोलशोधकों का अभिमत है कि वर्तमान में सेहट-मेहट के नाम से जो ग्राम जाना जाता है, वह प्राचीन श्रावस्ती नगरी है / चित्त सारथी का श्रावस्ती की ओर प्रयारण २११–तए णं से पएसी राया अन्नया कयाइ महत्थं महग्धं महरिहं विउलं रायारिहं पाहुडं सज्जावेइ, सज्जावित्ता चित्तं सारहिं सद्दावेति, सद्दावित्ता एवं वयासी गच्छ णं चित्ता! तुमं सात्थि नगरि जियसत्तस्स रण्णो इमं महत्थं जाव (महग्धं, महरिहं रायारिह) पाहुडं उवणेहि, जाई तत्थ रायकज्जाणि य रायकिच्चाणि य रायनीतियो य रायववहारा य ताई जियसत्तणा सद्धि सयमेव पच्चुवेक्खमाणे विहराहि त्ति कटु विसज्जिए। तए णं से चित्ते सारही पएसिणा रण्णा एवं बुत्ते समाणे हट जाव (तुट्ठ-चित्तमादिएपोइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवस-विसप्पमाण-हियए करयल-परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु 'एवं देवो तहत्ति' प्राणाए विणएणं वधणं) पडिसुणेता तं महत्थं जाव पाहुडं गेण्हइ, पएसिस्स रण्णो जाव पडिणिक्खमइ सेयवियं नगार मज्झमझेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता त महत्थं जाव पाहुडं ठवेइ, कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सच्छत्तं जाव चाउग्घंट प्रासरहं जुत्तामेव उवद्ववेह जाव पच्चपिणह / तए णं ते कोडुबियपुरिसा तहेव पडिसुणित्ता खिप्यामेव सच्छत्तं जाव जुद्धसज्ज चाउग्घंट प्रासरहं जुत्तामेव उवट्ठवेन्ति, तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति / 1. देखें सूत्र संख्या 1 2. देखें सूत्र संख्या 2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org