________________ 132] [ राजप्रश्नीयसूत्र उस प्रदेशी राजा का उम्र में बड़ा (ज्येष्ठ) भाई एवं मित्र सरीखा चित्त नामक सारथी था। वह समृद्धिशाली यावत् (दीप्त-तेजस्वी, प्रसिद्ध, विशाल भवनों अनेक सैकड़ों शय्या-आसन-यान-रथ आदि तथा विपुल धन, सोने-चांदी का स्वामी, अर्थोपार्जन के उपायों का ज्ञाता था। उसके यहाँ इतना भोजन-पान बनता था कि खाने के बाद भी बचा रहता था / दास, दासी, गायें, भैंसें, भेड़ें बहुत बड़ी संख्या में उसके यहां थी) और बहुत से लोगों के द्वारा भी पराभव को प्राप्त नहीं करने वाला था। साम-दण्ड-भेद और उपप्रदान नीति, अर्थशास्त्र एवं विचार-विमर्श प्रधान बुद्धि में विशारद-कुशल था। औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कामिकी तथा पारिणामिकी इन चार प्रकार की बुद्धियों से युक्त था / प्रदेशी राजा के द्वारा अपने बहुत से कार्यों में, कार्य में सफलता मिलने के उपायों में, कौटाम्बिक कार्यों में, मन्त्रणा (सलाह) में, गूप्त कार्यों में, रहस्यमय गोपनीय प्रसंगों में, निश्चय–निर्णय करने में, राज्य सम्बन्धी व्यवहार-विधानों में पूछने योग्य था, बार-बार विशेष रूप से पूछने योग्य था। अर्थात् सभी छोटे-बड़े कार्यों में उससे सलाह ली जाती थी। वह सबके लिये मेढी (खलिहान के केन्द्र में गाड़ा हुआ स्तम्भ, जिसके चारों ओर घूमकर बैल धान्य कुचलते हैं) के समान था, प्रमाण था, पृथ्वी के समान आधार-पाश्रय था, रस्सी के समान पालम्बन था, नेत्र के समान मार्गदर्शक था, मेढीभूत था, प्रमाणभूत था, प्राधार और अवलम्बनभूत था एवं चक्षुभूत था। सभी स्थानों-सन्धिविग्रह आदि कार्यों में और सभी भूमिकाओं-मन्त्री, अमात्य आदि पदों में प्रतिष्ठा-प्राप्त था। सबको विचार देने वाला था अर्थात् सभी का विश्वासपात्र था तथा चक्र की धुरा के समान राज्य-संचालक था-सकल राज्य कार्यों का प्रेक्षक था। विवेचन-उक्त वर्णन से यह प्रतीत होता है कि चित्त सारथी अतिनिपुण राजनीतिज्ञ, राज्यव्यवस्था करने में प्रवीण एवं अत्यन्त बुद्धिशाली था। उसे औत्पत्तिकी प्रादि चार प्रकार की बुद्धियों से युक्त बताया है / इन चार प्रकार की बुद्धियों का स्वरूप इस प्रकार है (1) औत्पत्तिकी बुद्धि-अदृष्ट, अननुभूत और अश्रुत किसी विषय को एकदम समझ लेने, तथा विषम समस्या के समाधान का तत्क्षण उपाय खोज लेने वाली बुद्धि या अकस्मात्, सहसा, तत्काल उत्पन्न होने वाली सूझ / (2) वैनयिकी-गुरुजनों को सेवा-शुश्रूषा, विनय करने से प्राप्त होने वाली बुद्धि / (1) कार्मिकी-कार्य करते-करते अनुभव-अभ्यास से प्राप्त होने वाली दक्षता, निपुणता / इसको कर्मजा अथवा कर्मसमुत्था बुद्धि भी कहते हैं / (4) पारिणामिकी-उम्र के परिपाक से अजित विभिन्न अनुभवों से प्राप्त होने वाली बुद्धि / उक्त चार बुद्धियां मतिज्ञान के श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित इन दो मूल विभागों में से दूसरे विशारा के अर्न्तगत हैं। जो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान के पूर्वकालिक संस्कार के निमित्त से उत्पन्न किन्तु वर्तमान में श्रुतनिरपेक्ष होता है, उसे श्रुतनिश्रित कहते हैं एवं जिसमें श्रुतज्ञान के संस्कार की किंचित्मात्र भी अपेक्षा नहीं होती है वह अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान कहलाता है। कुणाला जनपद, श्रावस्ती नगरी, जितशत्रु राजा 210 तेणं कालेणं तेणं समयेणं कुणाला नामं जणवए होत्था, रिथिमियसमिद्ध / तत्थ णं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org