________________ 124] राजप्रश्नीयसूत्र सुरभि गंधोदक से उनका प्रक्षालन करके फिर सर्वोत्तम श्रेष्ठ गन्ध और मालाओं से उनकी अर्चना की, धूपक्षेप किया और उसके बाद उन जिन-अस्थियों को पुनः उन्हीं वज्रमय गोल समुद्गकों को बन्द कर रख दिया। इसके बाद मोरपीछी से माणवक चैत्यस्तम्भ को प्रभाजित किया, दिव्य जलधारा से सिंचित किया, सरस गोशीर्ष चन्दन से चचित किया, उसपर पुष्प चढ़ाये यावत् धूपक्षेप किया। इसके पश्चात् सिंहासन और देवशैया के पास आया। वहाँ पर भी प्रमार्जना से लेकर धूपक्षेप तक के सब कार्य किये / इसके बाद क्षुद्र माहेन्द्रध्वज के पास आया और वहाँ भी पहले की तरह प्रमार्जना से लेकर धूपदान तक के सब कार्य किये। इसके अनन्तर चौपाल नामक अपने प्रहरणकोश (प्रायधशाला. शस्त्रभण्डार) में पाया। आकर मोर पंखों की प्रमार्जनिका-बुहारी हाथ में ली एवं उस प्रमानिका से प्रायुधशाला चौपाल को प्रमाजित किया। उसका दिव्य जलधारा से प्रक्षालन किया। वहाँ सरस गोशीर्ष चन्दन के हाथे लगाये, पुष्प आदि चढ़ाये और ऊपर से नोचे तक लटकती लम्बी-लम्बी मालाओं से उसे सजाया यावत् धूपदान पर्यन्त सर्व कार्य सम्पन्न किये। इसके बाद सुधर्मा सभा के अतिमध्यदेश भाग में बनी हुई मणिपीठिका एवं देवशैया के पास आया और मोरपीछी लेकर उस देवशैया और मणिपीठिका को प्रमाजित किया यावत् धूपक्षेप किया। इसके पश्चात् पूर्वदिशा के द्वार से होकर उपपात सभा में प्रविष्ट हुआ / यहाँ पर भी पूर्ववत् उसके अतिमध्य भाग की प्रमार्जन आदि कार्य करके उपपात सभा के दक्षिणी द्वार पर आया / वहाँ पाकर अभिषेकसभा (सधर्मासभा) के समान यावत पर्ववत पर्वदिशा की नन्दा पुष्करिणी की की। इसके बाद हद पर आया और पहले की तरह तोरणों, त्रिसोपानों, काष्ठ-पुतलियों और व्यालरूपों की मोरपीछी से प्रमार्जना की, उन्हें दिव्य जलधारा से सिंचित किया प्रादि धूपक्षेपपर्यन्त सर्व कार्य सम्पन्न किये। इसके अनन्तर अभिषेक सभा में आया और यहाँ पर भी पहले की तरह सिंहासन मणिपीठिका को मोरपीछी से प्रमाजित किया, जलधारा से सिंचित किया आदि धूप जलाने तक के सब कार्य किये / तत्पश्चात् दक्षिणद्वारादि के क्रम से पूर्व दिशावर्ती नन्दापुष्करिणीपर्यन्त सिद्धायतनबत् धूपप्रक्षेप तक के कार्य सम्पन्न किये। इसके पश्चात् अलंकारसभा में पाया और अभिषेकसभा की वक्तव्यता की तरह यहाँ धूपदान तक के सब कार्य सम्पन्न किये। इसके बाद व्यवसाय सभा में पाया और मोरपीछी को उठाया। उस मोरपीछी से पुस्तकरत्न को पोंछा, फिर उस पर दिव्य जल छिड़का और सर्वोत्तम श्रेष्ठ गन्ध और मालाओं से उसकी अर्चना की। इसके बाद मणिपीठिका की, सिंहासन की अति मध्य देशभाग की प्रमार्जना की, आदि धूपदान तक के सर्व कार्य किये। तदनन्तर दक्षिणद्वारादि के क्रम से पूर्व नन्दा पुष्करिणी तक सिद्धायतन की तरह प्रमार्जना आदि कार्य किये / इसके बाद वह ह्रद पर आया। वहाँ आकर तोरणों, त्रिसोपानों, पुतलियों और व्यालरूपों की प्रमार्जना आदि धूपक्षेपपर्यन्त कार्य सम्पन्न किये / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org