________________ सूर्याभदेव विषयक गौतम को जिज्ञासा] [127 तत्पश्चात् सूर्याभ देव के दक्षिण-पूर्वदिक् कोण में अभ्यन्तर परिषद् के आठ हजार देव पाठ हजार भद्रासनों पर बैठे। सूर्याभदेव की दक्षिण दिशा में मध्यम परिषद् के दस हजार देव दस हजार भद्रासनों पर बैठे। तदनन्तर सूर्याभ देव के दक्षिण-पश्चिम दिग् भाग में बाह्य परिषद् के बारह हजार देव बारह हजार भद्रासनों पर बैठे। तत्पश्चात् सूर्याभदेव की पश्चिम दिशा में सात अनीकाधिपति सात भद्रासनों पर बैठे / इसके बाद सूर्याभदेव की चारों दिशाओं में सोलह हजार आत्मरक्षक देव पूर्व दिशा में चार हजार, दक्षिण दिशा में चार हजार, पश्चिम दिशा में चार हजार और उत्तर दिशा में चार हजार, इस प्रकार सोलह हजार भद्रासनों पर बैठे। वे सभी प्रात्मरक्षक देव अंगरक्षा के लिये गाढबन्धन से बद्ध कवच को शरीर पर धारण करके, बाण एवं प्रत्यंचा से सन्नद्ध धनष को हाथों में लेकर गले में गैवेयक नामक ग्राभषण भषण-विशेष को पहनकर, अपने-अपने विमल और श्रेष्ठ चिह्नपट्टकों को धारण करके, प्रायुध और पहरणों से सुसज्जित हो, तीन स्थानों पर नमित और जुड़े हुये वज्रमय अग्र भाग वाले धनुष, दंड और बाणों को लेकर, नील-पीत-लाल प्रभा वाले बाण, धनुष चारु (शस्त्र-विशेष) चमड़े के गोफन, दंड, तलवार, पाश-जाल को लेकर एकाग्रमन से रक्षा करने में तत्पर, स्वामी-प्राज्ञा का पालन करने में सावधान, गुप्त-प्रादेश पालन करने में तत्पर, सेवकोचित गुणों से युक्त अपने-अपने कर्तव्य का पालन करने के लिये उद्यत, विनयपूर्वक अपनी प्राचार-मर्यादा के अनुसार किंकर-सेवक जैसे होकर स्थित थे। सूर्याभदेव विषयक गौतम की जिज्ञासा २०६५०–सूरियाभस्स णं भंते ! देवस्स केवइयं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! चत्तारि पालियोवमाई ठिती पण्णत्ता / प्र०-सरियाभस्स णं भंते! देवस्स सामाणियपरिसोववरणगाणं देवाणं केवइयं कालं ठिती पग्णता? उ-गोयमा ! चत्तारि पलिपोवमाई ठिती पण्णत्ता। महिड्ढोए महज्जुत्तीए, महब्बले, महायसे, महासोक्खे, महाणुभागे सूरियाभे देवे। अहो णं भंते ! सूरियाभे देवे महिड्डीए जाव महाणुभागे / सरियाभेणं भंते ! देवेणं सा दिव्वा देविड्डी, सा दिव्या देवज्जुई, से दिब्वे देवाणुभागे किण्णा लद्ध, किण्णा पत्ते, किण्णा अभिसमन्नागए ? पुन्वभवे के पासी? किनामए वा ? को वा गुत्तेणं ? कयरंसि वा गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा दोणमुहंसि वा प्रागरंसि वा प्रासमंसि वा संबाहंसि वा सन्निवेसंसि वा ? किं वा दच्चा, कि वा भोच्चा कि वा किच्चा, कि वा समायरित्ता, कस्स वा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अतिए एगमवि आरियं धम्मयं सुवयणं सुच्चा निसम्म ज णं सरियामेणं देवेणं सा दिवा देविड्डी जाव देवाणुभागे लद्ध पत्ते अभिसमन्नागए ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org