________________ सूर्याभदेव द्वारा सिद्धायतन के देवच्छंदक आदि की पमार्जना। [123 तदनन्तर सिद्धार्थतन की प्रदक्षिणा करके उत्तरदिशा की नंदा पुष्करिणी पर आया और वहाँ पर भी पूर्ववत् प्रमार्जनादि धूपक्षेप पर्यन्त कार्य किये। इसके बाद उत्तरदिशावर्ती चैत्यवृक्ष और चैत्यस्तम्भ के पास पाया एवं पूर्ववत् प्रमार्जन से लेकर धूपक्षेप करने तक के कार्य किये। इसके पश्चात् जहाँ पश्चिमदिशावर्ती मणिपीठिका थी, पश्चिम दिशा में स्थापित प्रतिमा थी, वहाँ आकर भी पूर्ववत् धूपक्षेपपर्यन्त करने योग्य कार्य किये। ___ तत्पश्चात् वह उत्तर दिशा के प्रेक्षागृह मण्डप में आया और धूपक्षेपपर्यन्त दक्षिण दिशा के प्रेक्षागृहमण्डप जैसी समस्त वक्तव्यता यहाँ जानना चाहिये तथा बही सब पूर्वदिशावर्ती द्वार के लिये और दक्षिण दिशा की स्तम्भपंक्ति के लिये भी पूर्ववत् वही सब कार्य किये अर्थात् स्तम्भों, काष्ठपुतलियों और व्यालरूपों आदि के प्रमार्जन से लेकर धूपक्षेप तक सब कार्य किये। इसके बाद वह उत्तर दिशा के मुखमण्डप और उस उत्तरदिशा के मुखमण्डप के बहुमध्य देशभाग (स्थान) में आया / यहाँ आकर पूर्ववत् अक्षपाटक, मणिपीठिका एवं सिंहासन आदि की प्रमार्जना से धूपक्षेपपर्यन्त सब कार्य किये। इसके बाद वह पश्चिमी द्वार पर आया, वहाँ पर भी द्वारशाखाओं आदि के प्रमार्जनादि से लेकर धूप दान तक के सब कार्य किये / तत्पश्चात् उत्तरी द्वार और उसकी दक्षिण दिशा में स्थित स्तम्भपंक्ति के पास आया। वहाँ भी पूर्ववत् स्तम्भ पुतलियों एवं व्याल रूपों की संमार्जना, आदि से लेकर धूपदान तक के सब कार्य किये। तदनन्तर सिद्धायतन के उत्तरी द्वार पर आया। यहाँ भी पुतलियों आदि के प्रमार्जन आदि से लेकर धूपक्षेप तक के सब कार्य किये / इसके अनन्तर सिद्धातन के पूर्व दिशा के द्वार पर आया और यहाँ पर भी पूर्ववत् कार्य किये / इसके बाद जहाँ पूर्वदिशा का मुखमण्डप था और उस मुखमण्डप का अतिमध्य देशभाग था, वहाँ आया और अक्षपाट, मणिपीठिका, सिंहासन की प्रमार्जना करके धूपक्षेप तक के सब कार्य किये / इसके बाद जहाँ उस पूर्व दिशा के मुखमण्डप का दक्षिणी द्वार था और उसकी पश्चिम दिशा में स्थित स्तम्भपंक्ति थी वहां आया / फिर उत्तर दिशा के द्वार पर आया और पहले के समान इन स्थानों पर स्तम्भों, पुतलियों, व्यालरूपों वगैरह को प्रमार्जित किया आदि धूपदान तक के सभी कार्य किये / इसी प्रकार से पूर्व दिशा के द्वार पर पाकर भी पूर्ववत् सब कार्य किये। इसके अनन्तर पूर्व दिशा के प्रेक्षागृह-मण्डप में आया / यहाँ आकर अक्षपाटक, मणिपीठिका, सिंहासन का प्रमार्जन आदि किया और फिर क्रमशः उस प्रेक्षागृहमण्डप के पश्चिम, उत्तर, पूर्व, एवं दक्षिण दिशावर्ती प्रत्येक द्वार पर जाकर उन-उनकी द्वारशाखाओं, पूतलियों, व्यालरू करने से लेकर धूपदान तक के सब कार्य पूर्ववत् किये / इसी प्रकार स्तूप की, पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण इन चार दिशाओं में स्थित मणिपीठिकानों की, जिनप्रतिमाओं की, चैत्यवृक्ष की, माहेन्द्रध्वजों की, नन्दा पुष्करिणी की, त्रिसोपानपंक्ति की, पुतलियों की, व्यालरूपों की प्रमार्जना करने से लेकर धूपक्षेप तक के सब कार्य किये / इसके पश्चात् जहाँ सुधर्मा सभा थी, वहाँ प्राया और पूर्वदिग्वर्ती द्वार से उस सुधर्मा सभा में प्रविष्ट हुा / प्रविष्ट होकर जहाँ माणवक चैत्यस्तम्भ था और उस स्तम्भ में जहाँ वज्रमय गोल समुद्गक रखे थे वहाँ आया। वहाँ आकर मोरपीछी उठाई और उस मोरपीछी से वज्रमय गोल समुद्गकों को प्रमाजित कर उन्हें खोला। उनमें रखी हुई जिन-अस्थियों को लोमहस्तक से पौंछा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org