________________ 116] [ राजप्रश्नीयसूत्र विवेचन-उपयुक्त वस्त्र परिधान एवं आभूषणों को पहनने से यह ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर के समकालीन भारतीय जन दो वस्त्र पहनने के साथ-साथ यथायोग्य प्राभूषणों को धारण करते थे। शृंगारप्रसाधनों में अतिशय सुरभिगंध वाले पदार्थों का उपयोग किया जाता था। वस्त्र-वर्णन तो तत्कालीन वस्त्र-कला की परम प्रकर्षता की प्रतीति कराता है। उस समय 'पाउडर' चूर्ण का भी प्रयोग किया जाता था। सूर्याभदेव द्वारा कार्य-निश्चय १९६-तए णं से सूरियाभे देवे केसालंकारेणं, मल्लालंकारेणं प्राभरणालंकारेणं वत्थालंकारेणं चउन्विहेण अलंकारेण प्रलंकिय-विभूसिए समाणे पडिपुण्णालंकारे सोहासणानो अब्भुट्ठति, अब्भुट्टित्ता अलंकारियसभाम्रो पुरथिमिल्लेणं दारेणं पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव व्यवसायसमा तेणेव उवागच्छति, ववसायसभं अणुपयाहिणीकरेमाणे अणुपयाहिणीकरेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति जेणेव सीहासणवरगए (?) जाव सन्निसन्ने / तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववन्नगा देवा पोत्थयरयणं उणति, तते णं से सरियामे देवे पोत्थयरयणं गिहति, गिहिता पोस्थयरयणं मुया, मुइत्ता पोत्थयरयणं विहाडेइ, विहाडित्ता पोत्थयरयणं वाएति, पोत्थयरयणं वाएत्ता धम्मियं ववसायं ववसइ, ववसइत्ता पोत्थयरयणं पडिनिक्खवइ, सोहासणाप्रो अभट्ठति, अन्भुटुत्ता ववसायसभातो पुरथिमिल्लेणं दारेणं पडिनिक्खमित्ता जेणेव नंदा पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता गंदापुक्तरिणि पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहइ, पच्चोरुहिता हत्थपादं पक्खालेति, पक्खालित्ता प्रायंते चोक्खे परमसुइभूए एग मह एमं मई सेयं रययामयं विमलं सलिलपण्णं मत्तगयमहागितिक भसमाणं भिगारंपण्डित्ता जाई तत्थ उप्पलाई जाव सतसहस्सपत्ताई ताई गेहति गेण्हित्ता गंदातो पुक्खरिणोतो पच्चुत्तरति, पच्चत्तरित्ता जेणेव सिद्धायतणे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। १६६--तत्पश्चात् केशालंकारों (केशों को सजाने वाले अलंकार), पुष्प-मालादि रूप माल्यालंकारों, हार आदि प्राभूषणालंकारों एवं देवदूष्यादि वस्त्रालंकारों-इन चारों प्रकार के अलंकारों से (अलंकृत-विभूषित होकर वह सूर्याभदेव सिंहासन से उठा। उठकर) अलंकारसभा के पूर्वदिग्वर्ती द्वार से बाहर निकला / निकलकर व्यवसाय सभा में आया एवं बारंबार व्यवसायसभा की प्रक्षिणा करके पूर्व दिशा के द्वार से उसमें प्रविष्ट हुआ / प्रविष्ट होकर जहाँ सिंहासन था वहाँ आकर यावत् सिंहासन पर आसीन हुआ। तत्पश्चात् सूर्याभदेव की सामानिक परिषद् के देवों ने व्यवसायसभा में रखे पुस्तक-रत्न को उसके समक्ष रखा। सर्याभदेव ने उस उपस्थित पस्तक-रत्न को हाथ में लिया हाथ में लेकर पुस्तक-रत्न खोला, खोलकर उसे बांचा / पुस्तकरत्न को बांचकर धर्मानुगत-धार्मिक कार्य करने का निश्चय किया। निश्चय करके वापस यथास्थान पुस्तकरत्न को रखकर सिंहासन से उठा एवं व्यवसायसभा के पूर्व-दिग्वर्ती द्वार से बाहर निकलकर जहाँ नन्दापुष्करिणी थी, वहाँ अाया। प्राकर पूर्वदिग्वर्ती तोरण और त्रिसोपान पंक्ति से नंदा पुष्करिणी में प्रविष्ट हुआ-उतरा / प्रविष्ट होकर हाथ पैर धोये / हाथ-पैर धोकर और आचमन-कुल्ला कर पूर्ण रूप से स्वच्छ और परम शुचिभूत--शुद्ध होकर मत्त गजराज की मुखाकृति जैसी एक विशाल श्वेतधवल रजतमय जल से भरी हुई भृगार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org