________________ अभिषेकानंतर सूर्याभदेव का अलंकरण ] [115 अभिषेकानंतर सूर्याभदेव का अलंकरण १६४–तए णं से सरियाभे देवे महया महया इंदाभिसेगेणं अभिसित्ते समाणे अभिसेयसभाम्रो पुरस्थिमिल्लेणं दारेणं निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता अलंकारियसभं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे करेमाणे अलंकारियसभं पुरस्थिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति, अणुपविसित्ता जेणेव सोहासणे तेणेव उवागच्छति सोहासणवरगते पुरस्थाभिमुहे सन्निसम्ने / १९४–अतिशय महिमाशाली इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त होने के पश्चात् सूर्याभदेव अभिषेकसभा के पूर्व-दिशावर्ती द्वार से बाहर निकला, निकलकर जहाँ अलंकार-सभा थी वहाँ आया / आकर अलंकार-सभा की अनुप्रदक्षिणा करके पूर्व दिशा के द्वार से अलंकार-सभा में प्रविष्ट हुआ / प्रविष्ट होकर जहाँ सिंहासन था, वहाँ आया और आकर पूर्व की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ सिंहासन पर प्रारूढ हुआ। १९५--तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोधवनगा अलंकारियभंडे उबवेति / तए णं से सूरियाभे देवे तप्पढमयाए पम्हलसूमालाए सुरभीए गंधकासाईए गायाई लूहेति लहित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अलिपति, अलिपित्ता नासानीसासवायवोझ चक्खहरं वनफरिसजुत्तं हयलालापेलवातिरेगं धवलं कणगखचियन्तकम्मं प्रागासफालियसमप्पभं दिव्वं देवदूसजुयलं नियंसेति, नियंसेत्ता हारं पिणद्धति, पिद्धित्ता अद्धहारं पिणद्ध इ, एगावलि पिणद्धति, विद्धित्ता मुत्तालि पिणद्धति. पिणद्धित्ता रयणावलि पिणद्ध इ, पिणद्धित्ता एवं अंगयाइं केयूराइं कडगाइं तुडियाई कडिसुत्तगं दसमुद्दाणंतगं वच्छसुत्तगं मुरविं कंठमुरवि पालंबं कुंडलाइं चूडामणि मउडं पिणद्ध इ, गंथिमवेढिम-पूरिम-संघाइमेणं चउब्धिहेणं मल्लेणं कपरुक्खगं पिव अप्पाणं प्रलंकियविभूसियं करेइ, करित्ता दद्दर-मलय-सुगंधगंधिएहि गायाइं भुखंडेइ दिव्वं च सुमणदामं पिणद्ध इ। १९५-तदनन्तर उस सूर्याभ देव की सामानिक परिषद् के देवों ने उसके सामने अलंकार--- भांड उपस्थित किया। इसके बाद सूर्याभदेव ने सर्वप्रथम रोमयुक्त सुकोमल काषायिक सुरभि गंध से सुवासित वस्त्र से शरीर को पोंछा / पौंछकर शरीर पर सरस गोशीर्ष चंदन का लेप किया, लेप करके नाक की नि:श्वास से भी उड़ जाये, ऐसे अति बारीक, नेत्राकर्षक, सुन्दर वर्ण और स्पर्श वाले, घोड़े के थूक (लार) से भी अधिक सुकोमल, धवल जिनके पल्लों और किनारों पर सुनहरी बेलबूटे बने हैं, आकाश एवं स्फटिक मणि जैसी प्रभा वाले दिव्य देवदूष्य (वस्त्र)युगल को धारण किया। देवदूष्य यूगल धारण करने के पश्चात् गले में हार पहना, अर्धहार पहना, एकावली पहनी, मुक्ताहार पहना, रत्नावली पहनी, एकावली पहन कर भुजाओं में अंगद, केयूर (बाजूबंद) कड़ा, त्रुटित, करधनी, हाथों की दशों अंगुलियों में दस अंगूठियाँ, वक्षसूत्र, मुरवि (मादलिया) कंठमुरवि (कंठी) प्रालंब (झूमके), कानों में कुडल पहने तथा मस्तक पर चूड़ामणि (कलगी) और मुकुट पहना / इन आभूषणों को पहनने के पश्चात् नथिम (गूथी हुई), वेष्टिम (लपेटी हुई), पूरिम (पूरी हुई) और संघातिम (सांधकर बनाई हुई), इन चार प्रकार की मालाओं से अपने को कल्पवृक्ष के समान अलंकृतविभूषित किया / विभूषित कर दद्दर मलय चंदन की सुगंध से सुगंधित चूर्ण को शरीर पर भुरकाछिड़का और फिर दिव्य पुष्पमालानों को धारण किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org