________________ 118] [राजप्रश्नीयसूत्र प्रमार्जनी (मयूरपिच्छ की पूजनी) हाथ में ली और प्रमार्जनी को लेकर जिनप्रतिमाओं को प्रमार्जित किया (पूजा)। प्रमाजित करके सुरभि गन्धोदक से उन जिनप्रतिमाओं का प्रक्षालन किया / प्रक्षालन करके सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप किया। लेप करके काषायिक (कसैली) सुरभि गन्ध से सुवासित वस्त्र से उनको पोंछा / उन जिन-प्रतिमाओं को प्रखण्ड (अक्षत) देवदूष्य-युगल पहनाया। देवदूष्य पहना कर पुष्प, माला, गन्ध, चूर्ण, वर्ण, वस्त्र और आभूषण चढ़ाये / इन सबको चढ़ाने के अनन्तर फिर ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी-लम्बी गोल मालायें पहनाई। मालायें पहनाकर पंचरंगे पुष्पपुजों को हाथ में लेकर उनकी वर्षा की और मांडने मांडकर उस स्थान को सुशोभित किया। फिर उन जिनप्रतिमाओं के सन्मुख शुभ्र, सलौने, रजतमय अक्षत तन्दुलों-चावलों से आठपाठ मंगलों का आलेखन किया, यथा-स्वस्तिक यावत् दर्पण / / तदनन्तर उन जिनप्रतिमाओं के सन्मुख श्रेष्ठ काले अगर, कुन्दरु, तुरुष्क और धूप की महकती सुगन्ध से व्याप्त और धूपवत्ती के समान सुरभिगन्ध को फैलाने वाले चन्द्रकांत मणि, वज्ररत्न और वैड्र्य मणि की दंडी तथा स्वर्ण-मणिरत्नों से रचित चित्र-विचित्र रचनात्रों से युक्त वैडूर्यमय धूपदान को लेकर धूप-क्षेप किया तथा विशुद्ध (काव्य-दोष से रहित) अपूर्व अर्थसम्पन्न अपुनरुक्त महिमाशाली एक सौ आठ छन्दों में स्तुति की। स्तुति करके सात-पाठ पग पीछे हटा, और फिर पीछे हटकर बायां घुटना ऊंचा किया और दायां घुटना जमीन पर टिकाकर तीन बार मस्तक को भूमितल पर नमाया / नमाकर कुछ ऊँचा उठाया, तथा मस्तक ऊंचा कर दोनों हाथ जोड़कर आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहाअरिहंत-सिद्ध भगवन्तों की स्तुति १९६-नमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं, श्रादिगराणं, तित्थगराणं सयंसंबद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीहाणं, पुरिसवरपुण्डरीआणं, पुरिसवरगंध-हत्थीणं, लोगुत्तमाणं, लोगनाहाणं, लोगहिप्राणं, लोगपईवाणं, लोगपज्जोनगराणं, अभयदयाणं, चवखुदयाणं मग्गदयाणं, सरणदयाणं, बोहिदयाणं, धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीणं, अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं, विश्रदृच्छउमाणं, जिणाणं, जावयाणं तिनाणं, तारयाणं, बुद्धाणं, बोहयाणं, मुत्ताणं, मोअगाणं, सव्वन्नणं, सम्वदरिसीणं सिबं, अयलं, अरुअं, अणंतं, अक्खयं, अन्वाबाहं, अपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं; बंदइ नमसइ / १६६-अरिहंत भगवन्तों को नमस्कार हो, श्रुत-चारित्र रूप धर्म की आदि करनेवाले, तीर्थकरतीर्थ की स्थापना करने वाले, स्वयंसंबद्ध-गुरूपदेश के बिना स्वयं ही बोध को प्राप्त, पुरुषों में उत्तम, कर्मशत्रुओं का विनाश करने में पराक्रमी होने के कारण पुरुषों में सिंह के समान, सौम्य और लावण्यशाली होने से पुरुषों में श्रेष्ठ पुंडरीक-कमल के समान, अपने पुण्य प्रभाव से ईति-व्याधि भीति- भय आदि को शांत, विनाश करने के कारण पुरुषों में श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान, लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक का हित करने वाले, संसारीप्राणियों को सन्मार्ग दिखाने के कारण लोक में प्रदीप के समान, केवलज्ञान द्वारा लोका-लोक को प्रकाशित करने वाले-वस्तु स्वरूप को बताने वाले, अभय दाता, श्रद्धा-ज्ञान रूप नेत्र के दाता, मोक्षमार्ग के दाता, शरणदाता, बोधिदाता, धर्मदाता, देशविरति सर्वविरतिरूप धर्म के उपदेशक, धर्म के नायक, धर्म के सारथी, सम्यक् धर्म के प्रवर्तक चातुर्गतिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org