________________ 110] [ राजप्रश्नीयसूत्र ___ इसके पश्चात् फिर जहाँ हैमवत और ऐरण्यवत क्षेत्र थे, जहाँ उन दोनों क्षेत्रों की रोहित, रोहितांसा तथा स्वर्णकूला और रूप्यकला महानदियाँ थी, वहाँ आये और कलशों में उन नदियों का जल भरा तथा नदियों के दोनों तटों को मिट्टी लो / जल मिट्टी को लेने के पश्चात् जहाँ शब्दापाति विकटापांति वृत्त वैताढच पर्वत थे, वहां आये / प्राकर समस्त ऋतुओं के उत्तमोत्तम पुष्पों आदि को लिया / वहाँ से वे महाहिमवंत और रुक्मि वर्षधर पर्वत पर आये और वहाँ से जल एवं पुष्प आदि लिये, फिर जहाँ महापद्म और महापुण्डरीक द्रह थे, वहाँ आये / पाकर द्रह जल एवं कमल आदि लिये। तत्पश्चात् जहाँ हरिवर्ष और रम्यकवर्ष क्षेत्र थे, हरिकांता और नारिकांता महानदियाँ थी, गंधापाति, माल्यवंत और वृत्तवैताढ्य पर्वत थे, वहाँ आये और इन सभी स्थानों से जल, मिट्टी, औषधियाँ एवं पुष्प लिये। इसके वाद जहां निषध, नील नामक वर्षधर पर्वत थे, जहाँ तिगिछ और केसरीद्रह थे, वहाँ आये, वहाँ पाकर उसी प्रकार से जल आदि लिया। तत्पश्चात् जहाँ महाविदेह क्षेत्र था जहाँ सीता, सीतोदा महानदियाँ थी वहाँ पाये और उसी प्रकार से उनका जल, मिट्टी, पुष्प आदि लिये। फिर जहाँ सभी चक्रवर्ती विजय थे, जहाँ मागध, वरदाम और प्रभास तीर्थ थे, वहाँ आये, वहाँ पाकर तीर्थोदक लिया और तीर्थोदक लेकर सभी अन्तर-नदियों के जल एवं मिट्टी को लिया। फिर जहाँ बक्षस्कार पर्वत थे वहाँ आये और वहाँ से सर्व ऋतओं के पष्पों प्रादि को लिया। तत्पश्चात् जहाँ मन्दर पर्वत के ऊपर भद्रशाल वन था वहाँ पाये, वहाँ आकर सर्व ऋतुओं के पुष्पों, समस्त औषधियों और सिद्धार्थकों को लिया / लेकर वहाँ से नन्दनवन में आये, आकर सर्व ऋतुओं के पुष्पों यावत् सर्व औषधियों, सिद्धार्थकों (सरसों) और सरस गोशीर्ष चन्दन को लिया। लेकर जहाँ सौमनस वन था, वहाँ पाये / पाकर वहाँ से सर्व ऋतुओं के उत्तमोत्तम पुष्पों यावत् सर्व औषधियों, सिद्धार्थकों, सरस गोशीर्ष चन्दन और दिव्य पुष्पमालाओं को लिया, लेकर पांडुक वन में आये और वहाँ आकर सर्व ऋतुनों के सर्वोत्तम पुष्पों यावत् सर्व औषधियों, सिद्धार्थकों, सरस गोशीर्ष चन्दन, दिव्य पुष्पमालाओं, दर्दरमलय चन्दन की सुरभि गंध से सुगन्धित गंध-द्रव्यों को लिया। इन सब उत्तमोत्तम पदार्थों को लेकर वे सब आभियोगिक देव एक स्थान पर इकट्ठा हुए और फिर उत्कृष्ट दिव्यगति से यावत् जहाँ सौधर्म कल्प था और जहाँ सूर्याभविमान था, उसकी अभिषेक सभा थी और उसमें भी जहाँ सिंहासन पर बैठा सूर्याभदेव था, वहाँ आये / आकर दोनों हाथ जोड़ आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके सूर्याभदेव को 'जय हो विजय हो' शब्दों से बधाया और बधाई देकर उसके आगे महान् अर्थ वाली, महा मूल्यवान्, महान् पुरुषों के योग्य विपुल इन्द्राभिषेक की सामग्री उपस्थित की-रखी। १९१–तए णं तं सरियाभं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सोमो, चत्तारि अग्गमहिसीनो सपरिवाराणो, तिन्नि परिसायो, सत्त प्रणियाहिवइणो जाव अन्नेवि बहवे सरियाभविमाणवासिणो देवा य देवोनो य तेहिं साभाविएहि य वे उम्बिएहि य वरकमलपइट्ठाणेहि य सुरभिवरवारिपडिपुन्नेहि चंदग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org