________________ 10.] [ राजप्रश्नीयसूत्र सयं पायामेणं, पन्नासं जोयणाई विक्खंभेणं, बावरि जोयणाई उड्ड उच्चत्तेणं, सभागमएणं जाव' गोमाणसियानो, भूमिभागा, उल्लोया तहेव / १७७-उस सुधर्मा सभा के उत्तर-पूर्व दिग्भाग (ईशान कोण) में एक विशाल सिद्धायतन है। वह सौ योजन लम्बा, पचास योजन चौड़ा और बहत्तर योजन ऊँचा है / तथा इस सिद्धायतन का गोमानसिकाओं पर्यन्त एवं भूमिभाग तथा चदेवा का वर्णन सुधर्मा सभा के समान जानना चाहिये। विवेचन–'सभागमएणं जाव गोमाणसियानो' पाठ से सिद्धायतन का वर्णन सुधर्मा सभा के समान करने का जो संकेत किया है, संक्षेप में वह वर्णन इस प्रकार है सुधर्मा सभा के समान ही इस सिद्धायतन की पूर्व, दक्षिण और उत्तर इन तीन दिशाओं में तीन द्वार हैं। उन प्रत्येक द्वारों के आगे एक-एक मुखमंडप बना है। मुखमण्डपों के आगे प्रेक्षागृह मंडप हैं। प्रेक्षागृह मण्डपों के आगे प्रतिमाओं सहित चार चैत्यस्तूप हैं तथा उन चैत्य स्तूपों के आगे चैत्यवृक्ष हैं / चैत्य वृक्षों के आगे एक एक माहेन्द्रध्वज फहरा रहा है। माहेन्द्रध्वजों के आगे नन्दा पुष्करिणियाँ हैं और उनके अनन्तर मनोगुलिकायें एवं गोमानसिकायें हैं। 178 तस्स णं सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महेगा मणिपेढिया पणत्ता-सोलस जोयणाई आयामबिक्खंभेणं, अट्ट जोयणाइं बाहल्लेणं। तोसे णं मणिपेढियाए उरि एत्थ णं महेगे देवच्छंदए पण्णत्ते सोलस जोयणाई मायामविक्खंभेणं, साइरेगाइं सोलस जोयणाई उडू उच्चत्तेणं, सन्वरयणामए जाव पडिरूवे। एत्थ णं अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहप्पमाणमित्ताणं संनिक्खित्तं संचिट्ठति / तासि णं जिणपडिमाणं इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा तवणिज्जमया हत्यतलपायतला, अंकामयाई नक्खाई अंतोलोहियक्खपडिसेगाई, कणगामईयो जंघाश्रो, कणगामया जाण, कणगामया उरू, कणगामईनो गायलट्रीमो, तवणिज्जमयाओ नाभीयो, रिद्वामईओ रोमराईनो, तवणिज्जमया चुचया, तवणिज्जमया सिरिवच्छा सिलप्पवालमया प्रोडा, फालियामया दंता, तवणिज्जमईप्रो जोहानों, तवणिज्जमया तालुया, कणगामईनो नासिगाश्रो अंतोलोहियक्खपडिसेगारो, अंकामयाणि अच्छोणि अंतोलोहियक्खपडिसेगाणि, [रिद्वामईप्रो ताराप्रो] रिट्रामयाणि अच्छिपत्ताणि, रिट्ठामईयो भमुहाओ, कणगामया कवोला, कणगामया सवणा, कणगामईयो पिडालपट्टियाओ, वइरामईओ सीसघडीमो, तवणिज्जमईप्रो केसंतकेसभूमीओ, रिट्टामया उरि मुद्धया। १७८-उस सिद्धायतन के ठीक मध्यदेश में सोलह योजन लम्बी-चौड़ी, पाठ योजन मोटी एक विशाल मणिपीठिका बनी हुई है। उस मणिपीठिका के ऊपर सोलह योजन लम्बा-चौड़ा और कुछ अधिक सोलह योजन ऊँचा, सर्वात्मना मणियों से बना हुअा यावत् प्रतिरूप एक विशाल देवच्छन्दक (आसनविशेष) स्थापित है और उस पर जिनोत्सेध तीर्थकरों की ऊंचाई के बराबर वाली एक सौ आठ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। उन जिन प्रतिमाओं का वर्णन इस प्रकार है, जैसे कि१. देखें सूत्रसंख्या 163 से 171 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org