________________ 102] [ राजप्रश्नीयसूत्र शंख, अंकरल, कुन्दपुष्प, जलकण, रजत और मन्थन किये हुए अमृत के फेनपुज सदृश श्वेत-धवल चामरों को धारण करके लीलापूर्वक बींजती हुई-सी खड़ी हैं। उन जिन-प्रतिमाओं के प्रागे दो-दो नाग-प्रतिमायें, यक्षप्रतिमायें, भूतप्रतिमायें, कुड (पात्रविशेष) धारक प्रतिमायें खड़ी हैं। ये सभी प्रतिमायें सर्वात्मना रत्नमय, स्वच्छ-निर्मल यावत् अनुपम शोभा से सम्पन्न हैं। उन जिन-प्रतिमाओं के आगे एक सौ पाठ-एक सौ आठ घंटा, चन्दनकलश, भंगार, दर्पण, थाल, पात्रियां, सुप्रतिष्ठान, मनोगुलिकायें, वातकरक, चित्रकरक, रत्न करंडक, अश्वकंठ यावत् वृषभकंठ पुष्पचंगेरिकायें यावत् मयूरपिच्छ चंगेरिकायें, पुष्पषटलक, तेलसमुद्गक यावत् अंजनसमुद्गक, एक सौ पाठ ध्वजायें, एक सौ आठ धूपकडुच्छुक (धूपदान) रखे हैं।। __ सिद्धायतन का ऊपरीभाग स्वस्तिक आदि पाठ-आठ मंगलों, ध्वजाओं और छत्रातिछत्रों से शोभायमान है। उपपात आदि सभाएँ १८०-तस्स णं सिद्धायतणस्स उत्तरपुरत्यिमेणं एस्थ णं महेगा उववायसभा पण्णता, जहा सभाए सुहम्माए तहेव जाव' मणिपेढिया अट्ट जोयणाई, देवसयणिज्जं तहेव सयणिज्जवण्णमो, अट्ठ मंगलगा, झया, छत्तातिछत्ता / १८०-इस सिद्धायतन के ईशान कोण में एक विशाल श्रेष्ठ उपपात-सभा बनी हुई है। सुधर्मा-सभा के समान ही इस उपपात-सभा का वर्णन समझना चाहिए। मणिपीठिका की लम्बाईचौड़ाई पाठ योजन की है और सुधर्मा-सभा में स्थित देवशैया के समान यहां की शैया का ऊपरी भाग आठ मंगलों, ध्वजामों और छत्रातिछत्रों से शोभायमान हो रहा है। विवेचन--सुधर्मा-सभा के समान इस उपपातसभा के वर्णन करने के संकेत का आशय यह सुधर्मासभा के समान ही इस उपपात-सभा के लिये भी पूर्वादि दिग्दर्ती तीन द्वारों, मुखमण्डप, प्रेक्षागहमण्डप, चैत्यस्तूप, चैत्यवृक्ष, माहेन्द्रध्वज एवं नन्दा-पुष्करिणी से लेकर उल्लोक तक का तथा मध्यभाग में स्थित-मणि-पीठिका और उस पर विद्यमान देवशैया एवं ऊपरी भाग में पाठ-पाठ मंगलों, ध्वजाओं और छत्रों का वर्णन करना चाहिए। १८१-तीसे णं उववायसभाए उत्तरपुरस्थिमेणं एस्थ णं महेगे हरए पण्णत्ते, एग जोयणसयं पायामेणं, पण्णासं जोयणाई विखंक्मेणं, दस जोयणाई उब्वेहेणं, तहेव से णं हरए एगाए पउमवरबेइयाए, एगेण वणसंडेण सम्बो समंता संपरिक्खित्ते / तस्स णं हरयस्स तिदिसं तिसोवाणपडिरूवगा पन्नत्ता। १८१-उस उपपातसभा के उत्तर-पूर्व दिग्भाग में एक विशाल ह्रद-जलाशय-सरोवर है / इस ह्रद का आयाम (लम्बाई) एक सौ योजन एवं विस्तार (चौड़ाई) पचास योजन है तथा गहराई 1. देखें सूत्र संख्या 163 से 176 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org