________________ पुस्तकरल एवं नन्दा-पुष्करिणी ] [ 103 दस योजन है। यह ह्रद सभी दिशानों में एक पद्मवरवेदिका एवं एक वनखण्ड से परिवेष्टित-घिरा हुया है तथा इस हद के तीन ओर अतीव मनोरम त्रिसोपान-पंक्तियाँ बनी हुई हैं। १८२-तस्स गं हरयस्स उत्तरपुरस्थिमे णं एत्य णं महेगा अभिसेगसभा पण्णत्ता, सुहम्मागमएणं जाव' गोमाणसियानो मणिपेढिया सीहासणं सपरिवारं जाव दामा चिट्ठति / तस्थ णं सूरियामस्स देवस्स सुबहु अभिसेयभंडे संनिक्खित्ते चिट्ठइ, अट्ठ मंगलगा तहेव / १८२-उस ह्रद के ईशानकोण में एक विशाल अभिपेकसभा है। सुधर्मा-सभा के अनुरूप ही यावत् गोमानसिकायें, मणिपीठिका, सपरिवार सिंहासन, यावत् मुक्तादाम हैं, इत्यादि।इस अभिषेक सभा का भी वर्णन जानना चाहिए। वहां सूर्याभदेव के अभिषेक योग्य साधन-सामग्री से भरे हुए बहुत-से भाण्ड (पात्र आदि सामग्री) रखे हैं तथा इस अभिषेक-सभा के ऊपरी भाग में पाठ-आठ मंगल आदि सुशोभित हो १८३–तीसे णं अभिसेगसभाए उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं अलंकारियसभा पण्णत्ता, जहा सभा सुधम्मा मणिपेढिया अट्ट जोयणाई, सीहासणं सपरिवारं / तत्थ णं सूरियाभस्स देवस्स सुबहु अलंकारियभंडे संनिक्खित्ते चिट्ठति, सेसं तहेव / १८३-उस अभिषेकसभा के ईशान कोण में एक अलंकार-सभा है। सुधर्मासभा के समान हो इस अलंकार-सभा का तथा पाठ योजन की मणिपीठिका एवं सपरिवार सिहासन आदि का वर्णन समझ लेना चाहिए। __ अलंकारसभा में सूर्याभदेव के द्वारा धारण किये जाने वाले अलंकारों से भरे हुए बहुत-से अलंकार-भांड रखे हैं / शेष सब कथन पूर्ववत् जानना चाहिये। १८४-तोसे णं अलंकारियसभाए उत्तरपुरस्थिमे णं तत्थ णं महेगा ववसायसभा पण्णता, जहा उववायसभा जाव सीहासणं सपरिवारं मणिपेढिया, अट्ठ मंगलगा० / १८४-उस अलंकारसभा के ईशानकोण में एक विशाल व्यवसायसभा बनी है / उपपातसभा के अनुरूप ही यहां पर भी सपरिवार सिंहासन, मणिपीठिका आठ-आठ मंगल आदि का वर्णन कर लेना चाहिए। पुस्तकरत्न एवं नन्दा-पुष्करिणी १८५-तत्थ णं सूरिमाभस्स देवस्स एत्य महेगे पोत्थयरयणे सन्निक्खित्ते चिटुइ, तस्स णं पोत्थयरयणस्स इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते तं जहा-- रिद्वामईप्रो कंबिधानो, तवणिज्जमए दोरे, नाणामणिमए गंठी, रयणामयाई पत्तगाई, वेरुलियमए लिप्पासणे, रिट्ठामए छंदणे, तवणिज्जमई संकला, रिद्वामई मसी, वइरामई लेहणी, रिट्ठामयाई अश्वराई, धम्मिए लेक्खे। 1. देखें सूत्र संख्या 163 से 171 / 2. देखें सूत्र संख्या 48 से 51 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org