________________ सामानिक देवों द्वारा कृत्यसंकेत] [105 विवेचन--जीव की उस शक्ति को पर्याप्ति कहते है जिसके द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करने तथा उनको आहार, शरीर ग्रादि के रूप में परिवर्तित करने का कार्य होता है। संसारी जीव को पुद्गलों के ग्रहण करने और परिणमाने की शक्ति पुदगलों के उपचय (पोषण, वृद्धि) से प्राप्त होती है एवं इस उपचय से ग्रहण और परिणमन करता है। इस प्रकार के कार्य-कारण भाव से उपचय, ग्रहण और परिणमन इन तीनों का क्रम निरंतर चलता रहता है। पर्याप्ति के छह भेद हैं 1. आहार-पर्याप्ति 2. शरीर-पर्याप्ति 3. इन्द्रिय-पर्याप्ति 4. श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति 5. भाषा-पर्याप्ति 6. मन-पर्याप्ति / उक्त छह पर्याप्तियों में अनुक्रम से एकेन्द्रिय जीवों के आदि की चार, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों के प्रादि की चार पर्याप्तियों के साथ भाषा-पर्याप्ति को मिलाने से पाँच तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनपर्यन्त छहों पर्याप्तियाँ होती हैं। इहभव संबंधी शरीर को छोड़ने के पश्चात् जब जीव परभव सम्बन्धी शरीर ग्रहण करने के लिए उत्पत्तिस्थान में पहुँच कर कार्मण शरीर के द्वारा प्रथम समय में जिन पुद्गलों को ग्रहण करता है, उनके आहार-पर्याप्ति आदि रूप छह विभाग हो जाते हैं और उनके द्वारा एक साथ आहार आदि छहों पर्याप्तियों का बनना प्रारम्भ हो जाता है, लेकिन उनकी पूर्णता क्रमश: होती है। अर्थात् आहार के बाद शरीर, शरीर के बाद इन्द्रिय आदि / यह क्रम मन-पर्याप्ति पर्यन्त समझना चाहिए / इसको एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझना चाहिए। जैसे कि छह सूत कातने वाली स्त्रियों ने रुई का कातना तो एक साथ प्रारंभ किया, किन्तु उनमें मोटा सूत कातने वाली जल्दी कात लेती है और उत्तरोत्तर बारीक-बारीक कातने वाली अनुक्रम से विलम्ब से कातती हैं / इसी प्रकार यद्यपि पर्याप्तियों का प्रारंभ तो एक साथ हो जाता है किन्तु उनकी पूर्णता अनुक्रम से होती है। पर्याप्तियां औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीन शरीरों में होती हैं और उनमें उनकी पूर्णता का क्रम इस प्रकार जानना चाहिए औदारिक शरीर वाला जीव पहलो ग्राहार-पर्याप्ति एक समय में पूर्ण करता है और इसके बाद दूसरी से लेकर छठी तक प्रत्येक अनुक्रम से एक-एक अन्तर्मुहूर्त के बाद पूर्ण करता है। वैक्रिय और आहारक शरीर वाले जीव पहली पर्याप्ति एक समय में पूर्ण कर लेते हैं और उसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में दूसरी पर्याप्ति पूर्ण करते हैं और उसके बाद तीसरी से छठी पर्यन्त अनुक्रम से एक-एक समय में पूरी करते हैं। लेकिन देव पांचवीं और छठी इन दोनों पर्याप्तियों को अनुक्रम से पूर्ण न कर एक साथ एक समय में ही पूरी कर लेते हैं / सूत्र में "भासामणपज्जत्तीए" पद से सूर्याभदेव को पाँच पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को प्राप्त होने का संकेत देवों के पाँचवीं और छठी भाषा और मन-पर्याप्तियाँ एक साथ पूर्ण होने की अपेक्षा किया गया है। सामानिक देवों द्वारा कृत्य-संकेत १८७-तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववन्नगा देवा सूरियाभस्स देवस्स Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org