________________ 104 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र यवसायसभाए णं उरि अटुट्ठ मंगलगा। तोसे णं ववसायसभाए उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं नंदा पुक्खरिणी पण्णत्ता हरयसरिसा / तीसे गं गंदाए पुषखरिणीए उत्तरपुरस्थिमेणं महेगे बलिपोढे पणत्ते सव्वरयणामए प्रच्छे जाव पडिरूवे। १८५-उस व्यवसाय-सभा में सूर्याभ देव का विशाल श्रेष्ठतम पुस्तकरत्न रखा है / उस पुस्तकरत्न का वर्णन इस प्रकार है इसके पूठे रिष्ट रत्न के हैं। डोरा स्वर्णमय है, गांठे विविध मणिमय हैं / पत्र रत्नमय हैं / लिप्यासन-दवात वैर्य रत्न की है, उसका ढक्कन रिष्टरत्नमय है और सांकल तपनीय स्वर्ण की बनी हुई है / रिष्टरत्न से बनी हुई स्याही है, वज्ररत्न की लेखनी-कलम है। रिष्टरत्नमय अक्षर हैं और उसमें धार्मिक लेख लिखे हैं / / व्यवसाय-सभा का ऊपरी भाग आठ-आठ मंगल आदि से सुशोभित हो रहा है। उस व्यवसाय-सभा में उत्तरपूर्व दिग्भाग में एक नन्दा पुष्करिणी है। ह्रद के समान इस नन्दा पुष्करिणी का वर्णन जानना चाहिए। उस नन्दा पुष्करिणी के ईशानकोण में सर्वात्मना रत्नमय, निर्मल, यावत् प्रतिरूप एक विशाल बलिपीठ (प्रासन-विशेष) बना है / उपपातान्तर सूर्याभदेव का चिन्तन १८६--तेणं कालेणं तेणं समएणं सूरियामे देवे अहुणोववण्णमित्तए चेव समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गच्छइ, तंजहा-आहारपज्जत्तीए, सरीरपज्जत्तीए इंदियपज्जत्तीए, प्राणपाणपज्जत्तीए, भासा-मणपज्जत्तीए / तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गयस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए चितिए पत्थिए, मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--कि मे पुब्धि करणिज्जं ? कि मे पच्छा करणिज्ज कि मे पुवि सेयं ? कि मे पच्छा सेयं? कि मे पुब्धि पि पच्छा वि हियाए सुहाए खमाए हिस्सेयसाए प्राणगामियत्ताए भविस्सइ ? १८६-उस काल और उस समय में तत्काल उत्पन्न होकर वह सूर्याभ देव (1) आहार पर्याप्ति (2) शरीर-पर्याप्ति (3) इन्द्रिय-पर्याप्ति (4) श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति और (5) भाषामनःपर्याप्ति-इन पाँच पर्याप्तियों से पर्याप्त अवस्था को प्राप्त हुआ / पाँच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्तभाव को प्राप्त होने के अनन्तर उस सूर्याभदेव को इस रिक विचार. चिन्तन. अभिलाष, मनोगत एवं संकल्प उत्पन्न हआ कि---मुझे पहले क्या करना चाहिये ? और उसके अनन्तर क्या करना चाहिये ? मुझे पहले क्या करना उचित (शुभ, कल्याणकर) है ? और बाद में क्या करना उचित है ? तथा पहले भी और पश्चात् भी क्या करना योग्य है जो मेरे हित के लिये, सुख के लिये, क्षेम के लिये, कल्याण के लिये और अनुगामी रूप (परंपरा) से शुभानुबंध का कारण होगा ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org