________________ नाट्याभिनयों का प्रदर्शन ] [13 नाट्यविधि दिखाने के लिये वे देवकुमार और देवकुमारियां एकत्रित हुई और एकत्रित होने से लेकर दिव्य देवरमण में प्रवृत्त होने पर्यन्त की पूर्वोक्त समस्त वक्तव्यता का यहाँ वर्णन करना चाहिये / विवेचन–'तं चेव भाणियन्वं' पद से यहाँ पूर्व में किये गये वर्णन की पुनरावृत्ति करने का संकेत किया है / उस वर्णन का सारांश इस प्रकार है सूर्याभदेव द्वारा आज्ञापित वे देवकुमार और कुमारियाँ श्रमण भगवान् महावीर को वन्दननमस्कार करके गौतम आदि श्रमण निर्गन्थों के समक्ष आये, उनके सामने एक साथ नीचे नमे फिर मस्तक ऊँचा कर सीधे खड़े हुए। इसी प्रकार सामूहिक रूप में नमन आदि किया। तत्पश्चात् अपने अपने नृत्य गान के उपकरण और वाद्यों को लेकर वे सभी गाने, नाच एवं नाट्य-अभिनय करने में प्रवृत्त हो गये। ८७-तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीयो य समणस्स भगवश्री महावीरस्स आवडपच्चावड-से ढिपसेढि-सोत्थिय-पूसमाणव-वद्धमाणग-मच्छण्डमगरंड-जार-मार-फुल्लावलि-पउमपत्त-सागरतरंग वसंतलता-पउमलयभत्तिचित्तं णाम दिन्वं णट्टविहिं उवदंसेंति। ८७-तदनन्तर उन देवकुमारों और देवकुमारियों ने श्रमण भगवान् महावीर एवं गौतमादि श्रमण निर्ग्रन्थों के सामने प्रावर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणि, प्रॲणि, स्वस्तिक, सौवस्तिक, पुष्य, माणवक, वर्धमानक, मत्स्याण्डक, मकराण्डक, जार, मार, पुष्पावलि, पद्मपत्र, सागरतरंग, वासन्तीलता और पद्मलता के आकार की रचनारूप दिव्य नाट्यविधि का अभिनय करके बतलाया। ८८–एवं च एक्किक्कियाए पट्टविहीए समोसरणादिया एसा वत्तव्यया जाव दिव्वे देवरमणे पवत्ते या वि होत्था। ८८-इसी प्रकार से प्रत्येक नाट्यविधि को दिखलाने के पश्चात् दूसरी प्रारम्भ करने के अन्तराल में उन देवकुमारों और कुमारियों के एक साथ मिलने से लेकर दिव्य देवक्रीड़ा में प्रवृत्त होने तक की समस्त वक्तव्यता [कथन पूर्ववत् सर्वत्र कह लेना चाहिये। ८९-तए णं ते बहवे देवकुमारा देवकुमारियायो य समणस्स भगवतो महावीरस्स ईहामिनउसभ-तुरग नर-मगर-विहग-बालग-किन्नर-रुरु-सरभ-चमर-कुजर-वणलय-पउमलयभत्तिचित्तं णाम दिव्ध गट्टविहिं उवदर्सेति / ८९-तदनन्तर उन सभी देवकुमारों और देवकुमारियों ने श्रमण भगवान के समक्ष ईहामृग, वृषभ, तुरग-अश्व, नर-मानव, मगर, विहग-पक्षी, व्याल-सर्प, किन्नर, रुरु, सरभ, चमर, कुजर, वनलता और पद्मलता की आकृति-रचना रूप दिव्य नाट्यविधि का अभिनय दिखाया। &.... 'एगतो वंक एगो चक्कवालं दुहओ चक्कवालं चक्कद्धचक्कवालं णामं दिव्वं णट्टविहि उवदंसंति। 1. किसी किसी प्रति के निम्नलिखित पाठ है-- एगतो वक्कं दुहनो वकं एगतो खहं दुहनोखहं एगो चक्कबालं दुहनो चक्कवालं चक्क द्धचक्कवालं णाम दिव्वं णाविहिं उवदंसंति / अर्थात् तत्पश्चात् एकतोवक्र, द्विधातोवक्र, एक अोर गगनमंडलाकृति, दोनों ओर गगनमंडलाकृति, एकतश्चक्रवाल द्विघातश्चक्रवाल ऐसी चक्रार्ध और चक्रवाल नामक दिव्य नाट्यविधि का अभिनय दिखाया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org