________________ [ राजप्रश्नीयसूत्र १०१-तदनन्तर उन देवकुमारों और देवकुमारियों ने क्रमश: 'क' अक्षर की प्राकृतिरचना करके ककारप्रविभक्ति, 'ख' की आकार-रचना करके खकार प्रविभक्ति. 'ग' की: द्वारा गकार प्रविभक्ति, 'घ' अक्षर के आकार की रचना घप्रविभक्ति, और 'ड' के आकार की रचना द्वारा डकारप्रविभक्ति, इस प्रकार ककार-खकार-गकार-घकार-ड-कारप्रविभक्ति नाम की दिव्य नाट्यविधियों का प्रदर्शन किया। इसी तरह से चकार-छकार-जकार-झकार-त्रकार की रचना करके चकारवर्गप्रविभक्ति नामक दिव्य नाट्यविधि का अभिनय दिखाया। चकार वर्ग के पश्चात् क्रमश: ट-ठ-ड-ढ-ण के आकार की सुरचना द्वारा टकारवर्गप्रविभक्ति नामक दिव्य नाट्यनिधि का प्रदर्शन किया। टकारवर्ग के अनन्तर क्रम प्राप्त तकार-थकार-दकार-धकार-नकार की रचना करके तकारवर्गप्रविभक्ति नामक नाट्यविधि को दिखलाया। ___तकारवर्ग के नाट्याभिनय के अनन्तर प, फ, ब, भ, म के आकार की रचना करके पकारवर्गप्रविभक्ति नाम की दिव्य नाट्यविधि का अभिनय दिखाया। विवेचन यहाँ लिपि सम्बन्धी अभिनयों के उल्लेख में ककार से पकार पर्यन्त पांच वर्गों के पच्चीस अक्षरों के अभिनयों का हो संकेत किया है, उसमें स्वरों तथा य, र, ल, व, ष, स, ह, क्ष, त्र, ज्ञ अक्षरों के अभिनयों का उल्लेख नहीं है। इसका कोई ऐतिहासिक कारण है या अन्य यह विचारणीय है / अथवा सम्भव है कि देवों की लिपि में ककार से लेकर पकार तक के अक्षर होते हों जिससे उन्हीं का अभिनय प्रदर्शित किया है / इन लिपि सम्बन्धी अभिनयों में 'क' वगैरह की जो मूल प्राकृतियाँ ब्राह्मी लिपि में बताई हैं, आकृतियों के सदृश अभिनय यहाँ समझना चाहिये। जैसे कि ब्राह्मी लिपि में क की+ऐसी प्राकृति है, अतएव इस आकृति के अनुरूप स्थित होकर अभिनय करके बताना 'क' की प्राकृति का अभिनय कहलायेगा / इसी प्रकार लिपि सम्बन्धी शेष दूसरे सभी अभिनयों के लिये भी समझ लेना चाहिये। १०२–असोयपल्लवप० च, अंबपल्लवप० च, जंबूपल्लवप० च, कोसंबपल्लवप० च, पल्लवप. च णाम उवदंसेति / १०२–तत्पश्चात् अशोक पल्लव (अशोकवृक्ष का पत्ता) आम्रपल्लव, जम्बू (जामुन) पल्लव, कोशाम्रपल्लव की प्राकृति-जैसी रचना से युक्त पल्लवप्रविभक्ति नामक दिव्य नाट्यविधि प्रदर्शित की। १०३-पउमलयाप० जाव (नागलयाप० असोगलयाप० चंपगलयाप० चयलयाप० वणलयाप० वासंतियलयाप० प्राइमुत्तयलयाप० कुदलयाप०) सामलयाप० चलयाप० च णामं उवदंसेंति / १०३-तदनन्तर पद्मलता यावत् नागलता, अशोकलता, चंपकलता, आम्रलता, वनलता, 1. 'पल्लव पल्लव प.' इति पाठान्तरम् / 2. 'लया लया प.' इति पाठान्तरम् / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org