________________ 65] [ राजप्रश्नीयसूत्र मणहरेणं कन्नमनिव्वुइकरेणं सद्देणं ते पदेसे सव्वनो समंता आपूरेमाणाम्रो आपूरेमाणाप्रो जाव (सिरीए अईव अईव उवसोभेमाणा) चिट्ठति / १२८-इन द्वारों को उभय पार्श्ववर्ती दोनों निषीधिकाओं में सोलह-सोलह घंटाओं को पंक्तियाँ कही गई हैं। उन घंटाओं का वर्णन इस प्रकार है-वे प्रत्येक घंटे जाम्बूनद स्वर्ण से बने हुए हैं, उनके लोलक वज्ररत्नमय हैं, भीतर और बाहर दोनों बाजुओं में विविध प्रकार के मणि जड़े हैं, लटकाने के लिये बंधी हुई साँकलें सोने को और रस्सियाँ (डोरियां) चाँदी की हैं। मेघ की गड़गड़ाहट, हंसस्वर, क्रौंचस्वर, सिंहगर्जना, दुन्दुभिनाद, वाद्यसमूहनिनाद, नन्दिघोष, मंजुस्वर, मंजुघोष, सुस्वर, सुस्वरघोष जैसी ध्वनिवाले वे घंटे अपनी श्रेष्ठ-सुन्दर मनोज्ञ, मनोहर कर्ण और मन को प्रिय, सुखकारी झनकारों से उस प्रदेश को चारों ओर से व्याप्त करते हुए अतीव अतीव शोभायमान हो रहे हैं / 126 तेसि णं दाराणं उभरो पासे दुहनो णिसीहियाए सोलस सोलस वणमालापरिवाडीयो पन्नत्तानो, तायो णं वणमालाप्रो गाणामणिमयदुमलयकिसलयपल्लवसमाउलाश्रो छप्पयपरिभुज्जमाणसोहंत सस्सिरीयानो पासाईयाओ, दरिसणिज्जाम्रो अभिरुवानो पडिरूवानो। १२६-उन द्वारों की दोनों बाजुओं की दोनों निषीधिकाओं में सोलह-सोलह वनमालाओं की परिपाटियां-पंक्तियाँ कही हैं। ये वनमालायें अनेक प्रकार की मणियों से निर्मित द्रमों वृक्षों, पौधों, लतानों किसलयों (नवीन कोपलों) और पल्लवों-पत्तों से व्याप्त हैं। मधुपान के लिये बारंबार षटपदों-भ्रमरों के द्वारा स्पर्श किये जाने से सुशोभित ये बनलतायें मन को प्रसन्न करने वाली, दर्शनीय, अभिरूप, एवं प्रतिरूप हैं। १३०–तेसि णं दाराणं उभग्रो पासे दुहनो णिसीहियाए सोलस-सोलस पगंठगा पन्नत्ता / ते णं पगंठगा अड्डाइज्जाइं जोयणसयाई प्रायामविक्खंभेणं, पणवीसं जोयणसयं बाहल्लेणं, सव्ववयरामया अच्छा जाव' पडिरूवा। १३०--इन द्वारों की उभय पार्ववर्ती दोनों निषीधिकाओं में सोलह-सलह प्रकंठक (वेदिका रूप पीठविशेष, चबूतरा) हैं। ये प्रत्येक प्रकंठक अढाई सौ योजन लंबे, अढाई सौ योजन चौड़े और सवा सौ योजन मोटे हैं तथा सर्वात्मना रत्नों से बने हुए, निर्मल यावत् अतीव रमणीय हैं / 131 तेसि णं पगंठगाणं उरि पत्तेयं पत्तेयं पासायव.सगा पन्नत्ता। ते णं पासायव.सगा अड्ढाइज्जाई जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, पणवीसं जोयणसयं विक्खंभेणं, अभुग्गयमूसिअपहसिया विव, विविहमणिरयणभत्तिचित्ता, वाउद्घयविजय-वेजयंतपडागच्छत्ताइछत्तकलिया, तुगा, गगण 1. देखें सुत्र संख्या 118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org