________________ माहेन्द्र-ध्वज इन चैत्य वृक्षों का वर्णन इस प्रकार किया गया है, इन वृक्षों के मूल (जड़ें) वज्ररत्नों के हैं, विडिमायें-शाखायें रजत की, कंद रिष्टरत्नों के, मनोरम स्कन्ध वैडूर्यमणि के, मूलभूत प्रथम विशाल शाखायें शोभनीक श्रेष्ठ स्वर्ण की, विविध शाखाप्रशाखायें नाना प्रकार के मणि-रत्नों की, पत्ते वैडूर्यरत्न के, पत्तों के वन्त (डंडियाँ) स्वर्ण के, अरुणमृदु-सुकोमल-श्रेष्ठ प्रवाल, पल्लव एवं अंकुर जाम्बूनद (स्वर्णविशेष) के हैं और विचित्र मणिरत्नों एवं सुरभिगंध-युक्त पुष्प-फलों के भार से नमित शाखाओं एवं अमृत के समान मधुररस युक्त फल वाले ये वृक्ष सुदर मनोरम छाया, प्रभा, कांति, शोभा, उद्योत से संपन्न नयन-मनको शांतिदायक एवं प्रासादिक हैं। उन चैत्यवृक्षों के ऊपर पाठ-पाठ मंगल, ध्वजायें और छत्राति छत्र सुशोभित हो रहे हैं / ___१६८-तेसि णं चेइयरुक्खाणं पुरतो पत्तेयं-पत्तेयं मणिपेढियानो पण्णत्तायो / तानो णं मणिपेढियायो अढ जोयणाई आयामविक्खंभेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं सध्वमणिमईयो अच्छाप्रो जाव पडिरूवायो। १६८-उन प्रत्येक चैत्य वृक्षों के आगे एक-एक मणिपीठिका है। ये मणिपीठिकायें पाठ योजन लंबी-चौड़ी, चार योजन मोटी, सर्वात्मना मणिमय निर्मल यावत् प्रतिरूप-अतिशय मनोरम हैं / माहेन्द्र-ध्वज : १६६–तासि णं मणिपेढियाण उरि पत्तेयं-पत्तेयं महिंदज्झए पण्णत्ते / ते गं महिंदज्झया सढि जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं, अद्धकोसं उव्वेहेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, वइरामय-वट्ट-लट्ठ-संठिय-सुसिलिट्ठ-परिघट्ठ-मट्ठ-सुपतिट्ठिए-विसिटु -अणेगवर-पंचवण्णकुडभी-सहस्सुस्सिएपरिमंडियाभिरामे-बाउधुविजयवेजयंतीपडागच्छत्तातिच्छत्तकलिते, तुगे, गगणतल-मणुलिहंतसिहरा पासादीया। तेसि णं महिंदज्झयाणं उरि अदृट्ठ मंगलया झया छत्तातिछत्ता / १६६-उन मणिपीठिकाओं के ऊपर एक-एक माहेन्द्रध्वज (इन्द्र के ध्वज सदृश अति विशाल ध्वज) फहरा रहा है / वे माहेन्द्रध्वज साठ योजन ऊंचे, प्राधा कोस जमीन के भीतर ऊंडे-गहरे, प्राधा कोस चौड़े. वज्ररत्नों से निर्मित, दीप्तिमान, चिकने, कमनीय मनोज्ञ वर्तु लाकार-गोल डंडे वाले शेष ध्वजारों से विशिष्ट, अन्यान्य हजारों छोटी-बड़ी अनेक प्रकार की मनोरम रंग-बिरंगी-पंचरंगी पताकाओं से परिमंडित, वायुवेग से फहराती हुई विजय वैजयन्ती पताका, छत्रातिछत्र से युक्त आकाशमंडल को स्पर्श करने वाले ऐसे ऊंचे उपरिभागों से अलंकृत, मन को प्रसन्न करने वाले हैं। इन माहेन्द्र--ध्वजों के ऊपर पाठ-आठ मंगल, ध्वजाये और छत्रातिछत्र सुशोभित हो रहे हैं / १७०-तेसि णं महिंदज्झयाणं पुरतो पत्तेयं-पत्तेयं नंदा पुक्खरिणीप्रो पण्णत्तानो। तानो णं पुक्खरिणीनो एगं जोयणसयं प्रायामेणं, पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं, दस जोयणाई उबेहेणं, अच्छाप्रो जाव वण्णप्रो, एगइयानो उदगरसेणं पण्णत्तानो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org