________________ 80 [ राजप्रश्नीयसूत्र १४५–तासि णं खुड्डाखुड्डियाणं वावीणं जाव बिलपंतियाणं तत्थ-तत्थ तहि-तहिं बहवे उपायपन्वयगा, नियइपन्वयगा, जगईपव्वयगा दारुइज्जपन्वयगा, दगमंडवा, दगमंचगा, दगमालगा, दगपासायगा, उसड्डा खुड्डखुड्डगा अंदोलगा पक्खंदोलगा सम्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। १४५---उन छोटी-छोटी वापिकाओं यावत् पपंक्तियों के मध्यवर्ती प्रदेशों में बहुत से उत्पात पर्वत, नियतिपर्वत, जगतीपर्वत दारुपर्वत तथा कितने ही ऊँचे-नीचे, छोटे-बड़े दकमंडप, दकमंच, दकमालक, दकप्रासाद बने हुए हैं तथा कहीं-कहीं पर मनुष्यों और पक्षियों को झूलने के लिये झूलेहिंडोले पड़े हैं। ये सभी पर्वत आदि सर्वरत्नमय अत्यन्त निर्मल यावत् असाधारण रूप से संपन्न हैं। विवेचन-सूत्र में बापिकाओं आदि के अन्तरालवर्ती स्थानों में आये हुए जिन पर्वतों आदि का वर्णन किया है, उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है उत्पातपर्वत-ऐसे पर्वत जहाँ सूर्याभ-विमानवासी देव-देवियाँ विविध प्रकार की चित्र-विचित्र क्रीडाओं के निमित्त अपने-अपने उत्तर वैक्रिय शरीरों की रचना करते हैं / नियतिपर्वत-इन पर्वतों पर सूर्याभ-विमानवासी देव-देवियाँ अपने-अपने भवधारणीय (मूल) वैक्रिय शरीरों से क्रीड़ारत रहते हैं। जगतीपर्वत–इन पर्वतों का प्राकार कोट-परकोटे जैसा होता है / दारुपर्वत- दारु अर्थात् काष्ठ-लकड़ी / लकड़ी से बने पर्वत जैसे आकार वाले कृत्रिम पर्वत / दकमंडप-स्फटिक मणियों से निर्मित. मंडप अथवा ऐसे मंडप जिनमें फुव्वारों द्वारा कृत्रिम वर्षा की रिमझिम-रिमझिम फुहारें बरसती रहती हैं। दकमालक-स्फटिक मणियों से बने हुए घर के ऊपरी भाग में बने हुए कमरे---मालिये / उत्पात पर्वतों आदि की शोभा १४६-तेसु णं उप्याय-पन्यएसु पक्खंदोलएसु बहूई हंसासणाई, कोंचासणाई गरुलासणाई उण्णयासणाई, पणयासणाई, दोहासणाइं, भद्दासणाई, पक्खासणाई, मगरासणाई, उसभासणाई, सोहासणाई, पउमासणाई, दिसासोबत्थियाई' सम्बरयणामयाइं अच्छाई जाव पडिरूवाई। १४६-उन उत्पात पर्वतों, पक्षिहिंडोलों आदि पर सर्वरत्नमय, निर्मल यावत् अतीव मनोहर अनेक हंसासन (हंस जैसी प्राकृति वाले प्रासन) कोंचासन, गरुडासन, उन्नतासन (ऊपर की ओर उठे हुए आसन), प्रणतासन (नीचे की ओर झुके हुए प्रासन), दीर्घासन (शैया जैसे लम्बे ग्रासन) भद्रासन, पक्ष्यासन, मकरासन, वृषभासन, सिंहासन, पद्मासन और दिशास्वस्तिक प्रासन (पक्षी, मगर, वृषभ, सिंह, कमल और स्वस्तिक के चित्रामों से सुशोभित अथवा तदनुरूप प्राकृति वाले प्रासन रखे हुए हैं। 1. यथाक्रम से इन आसनों की नामबोधक संग्रहणी गाथा इस प्रकार है 'हंसे कोंचे गरुडे उग्णय पणए य दीह भद्दे य / पक्खे मयरे पउमे सीह दिसासोत्थि बारसमे / " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org