________________ सूर्याभदेव के विमान का अवस्थान और वर्णन ] 113 - तदनन्तर--सूर्याभदेव के वापस जाने के अनन्तर- 'हे भदन्त' इस प्रकार से संबोधित कर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके विनयपूर्वक इस प्रकार पूछा ___ प्रश्न- हे भगवान् ! सूर्याभदेव की वह सब पूर्वोक्त दिव्य देवऋद्धि दिव्य देवद्यु ति, दिव्य देवानुभाव-प्रभाव कहां चल गया ? कहाँ प्रविष्ट हो गया-समा गया ? ११४-गोयमा ! सरीरं गते सरीरं अणुप्पविट्ठ / ११४-उत्तर-हे गौतम ! सूर्याभ देव द्वारा रचित वह सब दिव्य देव ऋद्धि प्रादि उसके शरीर में चली गई, शरीर में प्रविष्ट हो गई–समा गई, अन्तर्लीन हो गई। ' ११५–से केपट्टणं भंते ! एवं वुच्चइ सरीरं गते, सरीरं अणुप्पविट्ठ ? 115-- प्रश्न-हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि शरीर में चली गई, शरीर में अनुप्रविष्ट–अन्तर्लीन हो गई ? ११६–गोयमा ! से जहानामए कूडागारसाला सिया-दुहतो लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया णिवायगंभीरा, तोसे कूडागारसालाए अदूरसामंते एस्थ णं महेगे जणसमूहे चिट्ठति, तए णं से जणसमूहे एगं महं अभवद्दलगं वा वासबद्दलगं वा महावायं वा एज्जमाणं वा पासति, पासित्ता तं कूडागारसालं अंतो अणुप्पविसित्ता णं चिट्ठइ, से तेण?णं गोयमा ! एवं बुच्चति–'सरीरं अणुप्पविट्ठ'। ११६-हे गौतम! जैसे कोई एक भीतर-बाहर गोवर आदि से लिपी-पुती, बाह्य प्राकारपरकोटे-से घिरी हुई, मजबूत किवाड़ों से युक्त गुप्त द्वार वाली निर्वात-बायु का प्रवेश भी जिसमें दुष्कर है, ऐसी गहरी, विशाल कुटाकार--पर्वत के शिखर के आकार वाली-- शाला हो / उस कुटाकार शाला के निकट एक विशाल जनसमूह बैठा हो। उस समय वह जनसमूह आकाश में एक बहत बड़े मेघपटल को अथवा जलवृष्टि करने योग्य बादल को अथवा प्रचण्ड अांधी को प्राता हुआ देखे तो जैसे वह उस कूटाकार शाला के अंदर प्रविष्ट हो जाता है, उसी प्रकार हे गौतम ! सूर्याभदेव की वह सब दिव्य देवऋद्धि आदि उसके शरीर में प्रविष्ट हो गई-अन्तर्लीन हो गई है, ऐसा मैंने कहा है। सूर्याभ देव के विमान का अवस्थान और वर्णन-- 117 ---कहि णं भंते ! सूरियाभस्स देवस्स सूरिया नाम विमाणे पन्नत्ते ? ११७--हे भगवन् ! उस सूर्याभदेव का सूर्याभ नामक विमान कहाँ पर कहा गया है ? ११८-गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जातो भूमिभागातो उड्ढे चंदिम-सूरिय-गहगण-नक्खत्त-तारारूवाणं बहूई जोअणसयाई एवं-सहस्साई-सयसहस्साई, बहुई प्रो जोअणकोडोप्रो, जोत्रणसयकोडोप्रो, जोप्रणसहस्सकोडोप्रो, बहुईग्रो जोअणसयसहस्सकोडीयो बहुईनो जोत्रण-कोडाकोडोप्रो उड्ढे दूरं बीतीवइत्ता एत्थ णं सोहम्मे नाम कप्पे पन्नते-पाईणपडीणायते उदीणदाहिण-वित्यिण्णे, अद्ध चंदसंदणसंठिते, अच्चिमालि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org