________________ 50] [राजप्रश्नीयसूत्र सूर्याभदेव द्वारा बुलाये जाने पर वे देवकुमार और देवकुमारियाँ हर्षित होकर यावत् (संतुष्ट और चित्त में आनंदित होकर) सूर्याभदेव के पास आये और दोनों हाथ जोड़कर यावत् (आवर्त पूर्वक मस्तक पर अंजलि करके जय-विजय शब्दों से बधाया और) अभिनन्दन कर सूर्याभदेव से विनयपूर्वक बोले हे देवानुप्रिय ! हमें जो करना है, उसकी प्राज्ञा दीजिये। ७६-तए णं से सूरियाभे देवे ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीयो य एवं बयासी गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! समणं भगवंत महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेह, करित्ता वंदह नमसह, वंदित्ता नमंसित्ता गोयमाइयाणं समणाण निग्गंथाणं तं दिव्वं देविड्ढि दिव्वं देवजुक्ति दिव्वं देवाणुभावं, दिव्वं बत्तीसइबद्ध णट्टविहि उवदंसेह, उवदंसित्ता खिप्पामेव एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। ७६-तब सूर्याभदेव ने उन देवकुमारों और देवकुमारियों से कहा हे देवानुप्रियो ! तुम सभी श्रमण भगवान महावीर के पास जाओ और दक्षिण दिशा से प्रारम्भ करके तीन बार श्रमण भगवान् महावीर की प्रदक्षिणा करो / प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार करो / वन्दन-नमस्कार करके गौतमादि श्रमण निर्ग्रन्थों के समक्ष दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव वाली बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधि करके दिखलायो। दिखलाकर शीघ्र ही मेरी इस आज्ञा को वापस मुझे लौटाओ / ८०-तए णं ते बहवे देवकुमारा देवकुमारीयो य सूरियाभेणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ठ जाव करयल जाव पडिसुगंति, पडिसुणित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवंतं महावीरं जाव नर्मसित्ता जेणेव गोयमादिया समणा निग्गंथा तेणेव उवागच्छति। ८०-तदनन्तर वे सभी देवकुमार और देवकुमारियां सूर्याभदेव की इस आज्ञा को सुनकर हर्षित हुए यावत् दोनों हाथ जोड़कर यावत् प्राज्ञा को स्वीकार किया। स्वीकार करके श्रमण भगवान् के पास पाये / पाकर श्रमण भगवान महावीर को यावत् नमस्कार करके जहाँ गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थ विराजमान थे, वहाँ आये। ___८१--तए णं ते बहवे देवकुमारा देवकुमारीओ य समामेव समोसरणं करेंति, करित्ता' समामेव अवणमंति अवणमित्ता समामेव उन्नमंति, एवं सहितामेव प्रोनमंति एवं सहितामेव उनमंति सहियामेव उण्णमित्ता संगयामेव प्रोनमंति संगयामेव उन्नमंति उन्नमित्ता थिमियामेव श्रोणमंति थिमियामेव उन्नमंति, समामेव पसरंति पसरित्ता, समामेव प्राउज्जविहाणाइं गेण्हति समामेव पवाएंसु पगाइंसु पच्चिसु। ------- 1. 'समामेव पंतिग्रो बंधति बंधित्ता समामेव पंतिम्रो नमसति नमंसित्ता" यह पाठ किन्ही-किन्ही प्रतियों में विशेष मिलता है कि एक साथ पंक्ति बनाई, पंक्तिबद्ध होकर एक साथ नमस्कार किया और नमस्कार करके"............" | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org