________________ सूर्याम देव द्वारा मनोभावना का निवेदन] [45 संसारभ्रमण का परिमित काल होने पर भी जीव तभी मुक्त हो सकता है जब तदनुकूल और तदनुरूप सम्यग्ज्ञान-दर्शन और चारित्र का सुयोग-संयोग मिले। इसीलिये सूर्याभदेव ने भ से यह जानना चाहा कि मैं सम्यग्ज्ञानदर्शन-चारित्र की साधना करने में तत्पर हो सकगा? उनकी साधना करने का अवसर सुलभता से प्राप्त होगा अथवा नहीं ? सुलभबोधि होने पर भी सभी जीव सम्यग्ज्ञान आदि की यथाविधि आराधना करने में समर्थ नहीं हो पाते हैं। लोकषणाओं, परीषह, उपसर्गों आदि के कारण आराधना से विचलित होकर लक्ष्य के निकट पहुँचने पर भी संसार में भटक जाते हैं / इसी स्थिति को समझने के लिए सूर्याभ देव ने भगवान से पूछा-मैं आराधक ही रहूँगा अथवा भटक जाऊँगा? और सबसे अन्त में अपनी समस्त जिज्ञासाओं का निष्कर्ष जानने के लिये उत्सुकता से पूछा कि भव्य सूलभबोधि, अाराधक आदि होने पर भी मुझे क्या मुक्ति प्राप्ति की काल-लब्धि प्राप्त हो चुकी है ? संसार में रहने का मेरा इसके बाद का भव अंतिम है अथवा और दूसरे भी भवान्तर शेष हैं ? उक्त समग्र कथन का सारांश यह है कि योग्यता, निमित्त और उन निमित्तों का सदुपयोग करने के लिये तदनुकूल प्रवृत्ति करने पर ही जीव मुक्ति प्राप्त करता है / अत एव सर्वदा पुरुषार्थ के प्रति समर्पित होकर जीव को प्रयत्नशील रहना चाहिए। ७१–'सरियामा' इ समण भगवं महावीरे सूरियाभं देवं एवं वदासी—सूरियामा ! तुमं गं भवसिद्धिए नो प्रभवसिद्धिते जाव' चरिमे णो अचरिमे / 71- 'सूर्याभ !' इस प्रकार से सूर्याभदेव को सम्बोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने सूर्याभदेव को उत्तर दिया हे सूर्याभ ! तुम भवसिद्धिक-भव्य हो, अभवसिद्धिक-अभव्य नहीं हो, यावत् चरम शरीरी हो अर्थात् इस भव के पश्चात् का तुम्हारा मनुष्यभव अन्तिम होगा, अचरम शरीरी नहीं हो अर्थात् हे सूर्याभ ! तुम भव्य हो, सम्यग् दृष्टि हो, परमित संसार वाले हो, तुम्हें बोधि की प्राप्ति सुलभ है, तुम आराधक हो और चरम शरीरी हो। सूर्याभदेव द्वारा मनोभावना का निवेदन ७२-तए णं से सरिग्राभे देवे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट्ट चित्तमाणंदिए परमसोमणस्सिए समणं भगवंतं महावीरं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी तुम्भे णं भंते ! सव्वं जाणह, सव्यं पासह, सव्वं कालं जाणह सव्वं कालं पासह, सव्वे भावे जाणह सव्वे भावे पासह / जाणंति णं देवाणुप्पिया! मम पुट्विं वा पच्छा वा मम एयारूवं दिव्वं देविड्ढि दिव्वं देवजुई दिव्वं देवाणुभावं लद्ध पत्तं अभिसमण्णागयं ति / तं इच्छामि णं देवाणुप्पियाणं भत्तिपुव्वगं गोयमाइयाणं समणाणं निग्गंथाणं दिव्वं विड्ढि दिव्वं देवजुई दिन्वं देवाणुभावं दिव्वं बत्तीसतिबद्ध नट्टविहं उवदंसित्तए। 1. देखें सूत्र संख्या 70 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org