________________ सूर्याभ देव द्वारा मनोभावना का निवेदन प्रहासुहुमे० / दोच्चं पि विउव्वियसमुग्घाएणं जाव बहुसमरमणिज्जं भूमिभाग विउव्वति / से जहानामए प्रालिंगपुषखरे इ वा जाव मणोणं फासो / ' तस्स णं बहुसमरमणिग्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे पिच्छाघरमण्डवं विउध्वति अणेगखंभसयसंनिविटुं वणो-अन्तो बहुसमरमणिज्जं भूमिभागं उल्लोयं अक्खाडगं च मणिपेढियं च विउव्वति / तोसे णं मणिपेढियाए उवरि सोहासणं सपरिवारं जाव दामा चिट्ठन्ति / ७४-तत्पश्चात् सूर्याभदेव ने दूसरी और तीसरी बार भी पुन: इसी प्रकार से श्रमण भगवान् महावीर से निवेदन किया हे भगवन् ! आप सब जानते हैं आदि, यावत् नाटयविधि प्रदर्शित करना चाहता हूँ / इस प्रकार कहकर उसने दाहिनी ओर से प्रारम्भ कर श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार किया और वन्दन-नमस्कार करके उत्तर पूर्व दिशा में गया। वहाँ जाकर वैक्रियसमुद्घात करके संख्यात योजन लम्बा दण्ड निकाला / यथाबादर (असार) पुद्गलों को दूर करके यथासूक्ष्म (सारभूत) पुद्गलों का संचय किया। इसके बाद पुन: दुबारा वैक्रिय समुद्घात करके यावत् बहुसमरमणीय भूमि भाग की रचना की / जो पूर्ववणित आलिंग पुष्कर आदि के समान सर्वप्रकार से समतल यावत् रूप, रस गंध और स्पर्श वाले मणियों से सुशोभित था। उस अत्यन्त सम और रमणीय भूमिभाग के मध्यातिमध्य भाग में एक प्रेक्षागृहमंडपनाटकशाला की रचना की / वह अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर संनिविष्ट था इत्यादि वर्णन पूर्व के समान यहाँ कर लेना चाहिए। उस प्रेक्षागृह मंडप के अन्दर अतीव समतल, रमणीय भूमिभाग, चन्देवा, रंगमंच और मणिपीठिका की विकुर्वणा की और उस मणिपीठिका के ऊपर फिर उसने पादपीठ, छत्र आदि से युक्त सिंहासन की रचना यावत् उसका ऊपरी भाग मुक्तादामों से शोभित हो रहा था। ७५---तए णं से सरिया देवे समणस्स भगवतो महावीरस्स पालोए पणामं करेति, करिता 'अणुजाणउ में भगवं, ति कट्ट, सीहासणवरगए तित्थयराभिमुहे संणिसण्णे। तए णं से सूरिया देवे तप्पढमयाए नानामणिकणगरयविमलमहरिहनिउणओवियमिसिमिसितविरइयमहाभरणकडग-तुडियवरभूसणुज्जलं पीवरं पलम्बं दाहिणं भुयं पसारेति / तमो णं सरिसयाणं सरित्तयाणं सरिव्वयाण सरिसलावण्ण-रूवजोवणगुणोवधेयाणं एगाभरण-वसणगहिअणिज्जोयाणं दुहतो संवेल्लियग्गणियत्थाणं उप्पीलियचित्तपट्टपरियरसफेणकावत्तर इयसंगयपलंबवत्थंतचित्तचिल्ललगनियंसणाणं एगावलिकण्ठरइयसोभंतवच्छपरिहत्थभूसणाणं प्रसयं णट्टसज्जाणं देवकुमाराणं णिग्गच्छति। ७५–तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव ने श्रमण भगवान महावीर की ओर देखकर प्रणाम किया और प्रणाम करके 'हे भगवन् ! मुझे आज्ञा दीजिये' कहकर तीर्थंकर की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ सिंहासन--पर सुखपूर्वक बैठ गया। 1. देखें सूत्र संख्या 13 / 2. देखें सूत्र संख्या 30.44 / 3. देखे सूत्र संख्या 45-51 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org