________________ [राजप्रश्नीयसूत्र ७२-तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर के इस कथन को सुनकर उस सूर्याभदेव ने हर्षित सन्तुष्ट चित्त से आनन्दित और परम प्रसन्न होते हुए श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया हे भदन्त ! आप सब जानते हैं और सब देखते हैं, सर्वत्र दिशा-विदिशा, लोक-अलोक में विद्यमान समस्त पदार्थों को जानते हैं और देखते हैं। सर्व काल-प्रतीत-अनागत-वर्तमान काल को आप जानते और देखते हैं; सर्व भावों को आप जानते और देखते हैं। अतएव हे देवानुप्रिय ! पहले अथवा पश्चात् लब्ध, प्राप्त एवं अधिगत इस प्रकार की मेरी दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देवधुति तथा दिव्य देवप्रभाव को भी जानते और देखते हैं। इसलिये आप देवानुप्रिय की भक्तिवश होकर में चाहता हूँ कि गौतम आदि निर्ग्रन्थों के समक्ष इस दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देवद्युति-कांति, दिव्य देवानुभाव-प्रभाव तथा बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधि-नाट्यकला को प्रदर्शित करूं। ७३–तए णं समणे भगवं महावीरे सुरियाभेणं देवेणं एवं वृत्ते समाणे सूरियाभस्स देवस्स एयमट्ठ णो प्राढाति, णो पारियाणति, तुसिणीए संचिट्ठति / ७३-तब सूर्याभदेव के इस प्रकार निवेदन करने पर श्रमण भगवान् महावीर ने सूर्याभदेव के इस कथन का आदर नहीं किया, उसकी अनुमोदना नहीं की, किन्तु वे मौन रहे / विवेचन–अात्मविज्ञानी भगवान् की स्थितप्रज्ञ दशा को देखते हुए यह स्वाभाविक है कि . वे सूर्याभदेव के निवेदन को आदर न दें, उदासीन-मौन रहें, परन्तु सूर्याभदेव की मनोभूमिका को देखते हए वह उनके सामने नाटक दिखाने के सिवाय और कर भी क्या सकता था ? भक्तों की दो कोटियाँ हैं-पहली मन, वचन, काय से अपने भजनीय का अनुसरण करने वालों अथवा अनुसरण करने के लिये प्रयत्नशील रहने वालों की ये बाह्म प्रदर्शनों के बजाय भजनीय के शुद्ध अनुसरण को ही भक्ति समझते हैं। दूसरी कोटि है प्रशंसकों की, जो भजनीय का अनुसरण करने योग्य पुरुषार्थशाली नहीं होने से उनके प्रशंसक होकर संतोष मानते हैं / ऐसे प्रशंसक बाह्य-प्रदर्शन के सिवाय आंतरिक भक्ति तक पहुँच नहीं सकते हैं / ये प्रशंसक बाह्य-प्रदर्शन के प्रति भजनीय की उदासीनता को समझते हुए भी अपनी प्रसन्नता के लिये बाह्य-प्रदर्शन के अतिरिक्त और कुछ कर सकें, वैसे नहीं होते हैं / यही औपचारिक भक्ति के आविर्भाव होने का कारण प्रतीत होता है जो सूर्याभदेव के निवेदन से स्पष्ट है / इसके साथ ही यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि भगवान् के मौन रहने में 'यद् यदाचरति शिष्ट: तत् तदेवेतरो जनः' इस उक्ति का तत्त्व भी गर्भित है। टीकाकार ने सूर्याभदेव की इस नाटकविधि को स्वाध्याय आदि कर्त्तव्य का विघातक बताया है-'गौतमादीनां च नाट्यविधेः स्वाध्यायादिविघातकारित्वात् / ' ७४–तए णं से सरियाभे देवे समणं भगवन्तं महावीरं दोच्चं पि तच्चं पि एवं क्यासीतुम्भे गं भंते ! सव्वं जाणह जाव उवदंसित्तए त्ति कट्ट समणं भगवन्तं तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरथिमं दिसीभागं अवक्कमति, प्रवक्कमित्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणति, समोहणित्ता संखिज्जाइं जोयणाई दण्डं निस्सिरति, अहाबायरे० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org