________________ 44] [राजप्रश्नीयसूत्र देने के प्रसंग में आपने पापकर्म नहीं करने का विवेचन किया है। आपसे भिन्न दूसरा कोई श्रमण या ब्राह्मण इस प्रकार का उपदेश नहीं कर सकता है, तो फिर इससे श्रेष्ठ धर्म के उपदेश की बात कहाँ ? इस प्रकार से कह कर वह परिषदा जिस दिशा से आई थी, वापस उसी ओर लौट गई। सूर्याभ देव को जिज्ञासा का समाधान ७०–तए णं से सूरियाभे देवे समणस्स भगवश्री महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हतुट्ट जाव हयहियए उट्टाए उट्ठति उद्वित्ता समणं भगवंतं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी 'अहं गं भंते ! सूरियाभे देवे कि भवसिद्धिते, अभवसिद्धिते ? सम्मदिट्टी, मिच्छादिट्टी? परित्तसंसारिते, अणंतसंसारिते ? सुलभबोहिए, दुल्लभबोहिए ? पाराहए, विराहए ? चरिमे, प्रचरिमे? ७०-तदनन्तर वह सूर्याभदेव श्रमण भगवान् महावीर प्रभु से धर्मश्रवण कर और हृदय में अवधारित कर हर्षित एवं संतुष्ट यावत् आह्लादितहृदय हुआ। अपने आसन से खड़े होकर उसने श्रमण भगवान् महावीर को बंदन-नमस्कार किया और इस प्रकार प्रश्न किया ___'भगवन् ! मैं सर्याभदेव क्या भवसिद्धिक-भव्य हैं अथवा अभवसिद्धिक-अभव्य हूँ ? सम्यगदृष्टि हूँ या मिथ्यादृष्टि हूँ ? परित्त संसारी-परमित काल तक संसार में भ्रमण करने वाला हूँ अथवा अनन्त संसारी-अनन्त काल तक संसार में भ्रमण करने वाला हूँ ? सुलभबोधि-सरलता से सम्यगज्ञानदर्शन की प्राप्ति करने वाला हूँ अथवा दुर्लभबोधि हूँ ? आराधक-बोधि की आराधना करने वाला हूँ अथवा विराधक हूँ ? चरम शरीरी हूँ अथवा अचरम शरीरी हूँ ? विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में संसारी जीवों की चरम लक्ष्य प्राप्त करने की भावना का दिग्दर्शन कराया है। यद्यपि संसारी जीव अनादि काल से इस जन्म-मरण रूप संसार में परिभ्रमण करते आ रहे हैं, परन्तु चाहते यही हैं कि उस आत्मरमणता स्थिति को प्राप्त कर लू कि जिसके पश्चात् न पुनर्जन्म है और न पुनःमरण है तथा न बार-बार के जन्म-मरण के कारण सांसारिक आधि-व्याधियाँ कांक्षा तभी सफल हो पाती है जब उस जीव में मक्त होने की योग्यता पाई जाती है। ऐसी योग्यता उसी में पाई जाती है जो भव्य हो अर्थात् अभी न सही किन्तु कालान्तर में कभी-नकभी जिसे मुक्ति अवश्य प्राप्त होगी। इसीलिये सूर्याभदेव ने सर्वप्रथम भगवान् के समक्ष यही जिज्ञासा व्यक्त की कि-हे भगवन् ! मैं मुक्ति प्राप्त करने की योग्यता वाला-भव्य हूँ अथवा नहीं हूँ ? ___ योग्यता होने पर मुक्ति तभी प्राप्त हो सकती है जब सम्यक् श्रद्धा, विश्वास, प्रतीति, दृष्टि हो। सम्यक् श्रद्धा के न होने पर जीव चाहे भव्य (मुक्ति योग्य) हो किन्तु वह प्राप्त नहीं की जा सकती। इस तथ्य को समझने के लिए सूर्याभदेव ने दूसरा प्रश्न पूछा- मैं सम्यग्दृष्टि हूँ अथवा नहीं हूँ? सम्यगदृष्टि हो जाने पर भी यह निश्चित नहीं है कि सभी जीव शीघ्र मुक्ति प्राप्त करें। ऐसे जीव भी अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करने वाले हो सकते हैं और यह भी संभव है कि सीमित समय में मुक्ति प्राप्त कर लें। इसी बात को जानने के लिए पूछा-~-भगवन् ! मैं परिमितकाल तक संसारभ्रमण करने वाला हूँ अथवा अनन्त काल तक मुझे संसार में भ्रमण करना पड़ेगा ? है। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org