________________ 24] [ राजश्नीयसूत्र प्रशांत (बिल्कुल शांत) हो जाने पर उस पदात्यानीकाधिपति देव ने जोर-जोर से उच्च शब्दों में उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहा आप सभी सूर्याभविमानवासी वैमानिक देव और देवियां सूर्याभ विमानाधिपति की इस हितकारी सुखप्रद घोषणा को हर्षपूर्वक सुनिये हे देवानुप्रियो ! सूर्याभ देव ने पाप सबको आज्ञा दी है कि सूर्याभ देव जम्बूद्वीप नामक द्वीप में वर्तमान भरतक्षेत्र में स्थित प्रामलकल्पा नगरी के ग्राम्रशालवन चैत्य में विराजमान श्रमण भगवान् महावीर की वन्दना करने के लिए जा रहे हैं / अतएव हे देवानुप्रियो ! आप सभी समस्त ऋद्धि से युक्त होकर अविलम्ब-तत्काल सूर्याभ देव के समक्ष उपस्थित हो जायें। सूर्याभ देव की घोषणा को प्रतिक्रिया २२-तए णं ते सूरियाभविमाणवासिणो बहवे वेमाणिया देवा देवीग्रो य पायत्ताणिया. हिवइस्स देवस्स अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म हद्वतुट्ठ जाव' हियया अप्पेगइया वदणवत्तियाए, अप्पेगइया पूयणवत्तियाए, अप्पेगइया सरकारवत्तियाए अप्पेगइया संमाणवत्तियाए, अप्पेगइया कोऊहलजिणभत्तिरागणं, अपेगइया सरियाभस्स देवस्स वयणमणयत्तमाणा, अप्पेगहया अस्सयाडं सणेस्सामो, अप्पेगइया सुयाइं निस्संकियाई करिस्सामो, अप्पेगतिया अनमन्नमणुयत्तमाणा, अप्पेगइया जिणभत्तिरागणं, अप्पेगइया 'धम्मो' त्ति, अप्पेगइया 'जीयमेयं' ति कटु सविड्ढोए जाव' अकालपरिहोणा चेव सरियाभस्स देवस्स अंतियं पाउभवंति / २२--तदनन्तर पदात्यनीकाधिपति देव से इस बात (सूर्याभदेव की आज्ञा) को सुनकर सर्याभविमानवासी सभी वैमानिक देव और देवियां हर्षित, सन्तुष्ट यावत् विकसितहृदय हो, कितने ही वन्दना करने के विचार से, कितने ही पर्युपासना करने की आकांक्षा से, कितने ही सत्कार करने की भावना से, कितने ही सम्मान करने की इच्छा से, कितने ही जिनेन्द्र भगवान् के प्रति कुतुहलजनित भक्ति-अनुराग से, कितने ही सूर्याभ देव की आज्ञा पालन करने के लिए, कितने ही अश्रुतपूर्व (जिसको पहले नहीं सूना) को सुनने की उत्सुकता से, कितने ही सुने हुए अर्थविषयक शंकाओं का समाधान करके निःशंक होने के अभिप्राय से, कितने ही एक दूसरे का अनुसरण करते हुए, कितने ही जिनभक्ति के अनुराग से, कितने ही अपना धर्म (कर्त्तव्य) मानकर और कितने ही अपना परम्परागत व्यवहार समझकर सर्व ऋद्धि के साथ यावत् बिना किसी विलम्ब के तत्काल सूर्याभदेव के समक्ष उपस्थित हो गये। विवेचन--यहाँ मानवीय रुचि की विविधरूपता का चित्रण किया गया है कि कार्य के एक समान होने पर भी प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार उसमें प्रवृत्त होता है / इसीलिए लोक को विभिन्न रुचि वाला बताया गया है / जैनसिद्धान्त के अनुसार इस प्रकृति-स्वभावजन्य विविधता का कारण कर्म है-'कर्मजं लोकवैचित्यं तत्स्तभावानुकारणम् / ' सूर्याभदेव द्वारा विमान निर्माण का आदेश २३--तए णं से सूरियाभे देवे ते सूरिया भविमाणवासिणो बहवे वेमाणिया देवा य देवीग्रो य 1. देखें सूत्र संख्या 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org