________________ 26 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र १४-तदनन्तर वह आभियोगिक देव सूर्याभदेव द्वारा इस प्रकार का आदेश दिये जाने पर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ यावत् प्रफुल्ल हृदय हो दोनों हाथ जोड़ यावत् आज्ञा को सुना यावत् उसे स्वीकार करके वह उत्तर-पूर्व दिशा-ईशानकोण में पाया / वहाँ आकर वैक्रिय समुद्घात किया और समुद्घात करके संख्यात योजन ऊपर-नीचे लंबा दण्ड बनाया यावत् यथाबादर (स्थूल-असार) पुद्गलों को अलग हटाकर सारभूत सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण किया, ग्रहण करके दूसरी बार पुनः वैक्रिय समुद्धात करके अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर सन्निविष्ट यावत् दिव्ययान-विमान की विकुर्वणा (रचना) करने में प्रवृत्त हो गया। प्राभियोगिक देवों द्वारा विमानरचना २५-तए णं से आभियोगिए देवे तस्स दिश्वस्स जाणविमाणस्स तिदिसि तिसोवाणपडिरूवए विउव्यति, तंजहा-पुरस्थिमेणं, दाहिणेणं, उत्तरेणं, तेसि तिसोवाणपडिरूवगाणं इमे एयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा वइरामया णिम्मा, रिट्ठामया पतिढाणा, वेरुलियामया खंभा, सुवण्ण-रुप्पमया फलगा, लोहितक्खमइयाप्रो सईओ, वयरामया संधी, गाणामणिमया अवलंबणा, अवलंबणबाहाम्रो य, पासादीया जाव पडिरूवा। २५---इसके अनन्तर (विमान रचना के लिए प्रवृत्त होने के अनन्तर) सर्व प्रथम पाभियोगिक देवों ने उस दिव्ययान-विमान की तीन दिशाओं—पूर्व, दक्षिण और उत्तर में विशिष्ट रूप-शोभासंपन्न तीन सोपानों (सीढ़ियों) वाली तीन सोपान पंक्तियों की रचना की। बे रूपशोभा संपन्न सोपान पंक्तियां इस प्रकार की थी __ इनकी नेम (भूमि से ऊपर निकला प्रदेश, वेदिका) वज्ररत्नों से बनी हुई थी। रिष्ट रत्नमय इनके प्रतिष्ठान (पैर रखने को स्थान) और वैडूर्य रत्नमय स्तम्भ थे / स्वर्ण-रजत मय फलक (पाटिये) थे। लोहिताक्ष रत्नमयी इनमें सूचियां कीलें लगी थीं / वज्ररत्नों से इनकी संधियां (सांधे) भरी हुई थीं, चढ़ने-उतरने में अवलंबन के लिये अनेक प्रकार के मणिरत्नों से बनी इनकी अवलंबनवाहा थीं तथा ये त्रिसोपान पंक्तियां मन को प्रसन्न करने वाली यावत असाधारण सुन्दर थी। २६-तेसिणं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरनो पत्तेयं पत्तेयं तोरणं पण्णत्तं, तेसि गं तोरणाणं इमे एयारवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-तोरणा पाणामणिमया णाणामणिमएसु थम्भेसु उवनिविटुसंनिविट्ठा विविहमुत्तन्तरारूवोवचिया विविहतारारूवोचिया जाव पासाइया दरिसणिज्जा, अभिरूवा पडिरूवा। २६-इन दर्शनीय मनमोहक प्रत्येक त्रिसोपान-पंक्तियों के आगे तोरण बंधे हुए थे। उन तोरणों का वर्णन इस प्रकार का है _वे तोरण मणियों से बने हुए थे। गिर न सकें, इस विचार से विविध प्रकार के मणिमय स्तंभों के ऊपर भली-भांति निश्चल रूप से बांधे गये थे। बीच के अन्तराल विविध प्रकार के मोतियों से निर्मित रूपकों से उपशोभित थे और सलमा सितारों आदि से बने हुए तारा-रूपकों-बेल कूटों से व्याप्त यावत् (मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप-मनाकर्षक और) अतीव मनोहर थे। 1. देखें सूत्र संख्या 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org