________________ 20 ] [ राजप्रश्नोयसूत्र करता है–बुहारता है, वैसे ही सूर्याभदेव के उन आभियोगिक देवों ने भी संवर्तक वायु की विकूर्वणा की। विकर्वणा करके श्रमण भगवान महावीर के आस-पास चारों ओर एक योजन इर्द गिर्द भूभाग में जो कुछ भी घरस पत्ते आदि थे उन सभी को चुन-चुनकर एकान्त स्थान में ले जाकर फेंक दिया और फैक कर शीघ्र ही अपने कार्य से निवृत्त हुए। अभ्र-बादलों की विकुर्वणा १६-दोच्च पि बेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणति, समोहणित्ता अभवद्दलए विउव्वंति / से जहाणामए भइगदारगे सिया तरुणे जाव' सिप्पोवगए एगं महं दगवारगं वा, दगकुम्भगं वा, दगथालगं वा, दगकलसगं वा, गहाय पारामं वा जाव पवं वा प्रतुरियं जाव सन्धतो समंता प्रावरिसेज्जा, एवामेव तेऽवि सूरियाभस्स देवस्स आभियोगिया देवा अभवद्दलए विउध्वंति, विउवित्ता खिप्पामेव पतणतणायंति, पतणतणाइत्ता खिप्पामेव विज्जुयायंति, विज्जुयाइत्ता समणस्स भगवनो महावीरस्स सम्वनो समंता जोयणपरिमंडलं गच्चोदगं जातिमट्टियं तं पविरलपप्फुसियं रयरेणुविणासणं दिव्वं सुरभिगंधोदगं वासं वासंति, वासेत्ता णियरयं, गट्ठरयं, भट्टरयं, उवसंतरयं, पसंतरयं, करेंति, करित्ता खिप्पामेव उवसामंति / इसके पश्चात् उन आभियोगिक देवों ने दुबारा वैक्रिय समुद्घात किया। वैक्रिय समुद्धात करके जैसे कोई तरुण यावत् कार्यकुशल भृत्यदारक-सींचने वाला नौकर जल से भरे एक बड़े घड़े, वारक (मिट्टी से बने पात्र विशेष--चाड़े) अथवा जलकुभ (मिट्टी के घड़े) अथवा जल-स्थालक (कांसे के घड़े) अथवा जल-कलश को लेकर आराम-फुलवारी यावत् परव (प्याऊ) को बिना किसी उतावली के यावत् सब तरफ से सींचता है, इसी प्रकार से सूर्याभदेव के उन आभियोगिक देवों ने आकाश में घुमड़-घुमड़कर गरजने वाले और बिजलियों की चमचमाहट से युक्त मेघों को विक्रिया की और विक्रिया करके श्रमण भगवान् महावीर के विराजने के स्थान के आस-पास चारों ओर एक योजन प्रमाण गोलाकार भूमि में इस प्रकार से सुगन्धित गंधोदक बरसाया कि जिस मि जलबहुल हुई, न कीचड़ हुआ किन्तु रिमझिम-रिमझिम विरल रूप से बूंदाबांदी होने से उड़ते हुए रजकण दब गये। इस प्रकार की मेघ वर्षा करके उस स्थान को निहितरज, नष्टरज,भ्रष्टरज, उपशांत रज, प्रशांत रज वाला बना दिया। ऐसा करके वे अपने कार्य से विरत हुए। विवेचन-देवों द्वारा की गई उक्त मेघबादलों की विकुर्वणा से ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में जल वर्षा के लिये कृत्रिम मेघों की रचना होती होगी / आज के वैज्ञानिकों द्वारा भी इस प्रकार के प्रयोग किये जा रहे हैं और उनमें कुछ सफलता भी मिली है। पुष्प-मेघों की रचना १७–तच्चं पि वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहगंति पुष्फवद्दलए विउव्वंति, से जहाणामए मालागारदारए सिया तरुणे जाव सिप्पोवगए एगं महं पुरफछज्जियं वा पुप्फपडलग वा पुष्फचंगेरियं वा गहाय रायङ्गणं वा जाव: सव्वतो समंता कयग्गहगहियकरयलपन्म?विप्पमुक्केणं 1. सूत्र संख्या 15 2. सूत्र संख्या 15 3. देखें सूत्र संख्या 15 4. देखें सूत्र संख्या 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org