________________ 18 ] [ राजप्रश्नीयसूत्र उत्तर वैक्रिय रूपों की विकुर्वणा करके अर्थात् अपना-अपना वैक्रियलब्धिजन्य उत्तर वैक्रिय शरीर बनाकर वे उत्कृष्ट त्वरा वाली, चपल, अत्यन्त तीन होने के कारण चंड, जवन-वेगशील, आँधी जैसी तेज दिव्य गति से तिरछे-तिरछे स्थित असंख्यात द्वीप समुद्रों को पार करते हुए जहाँ जम्बूद्वीपवर्ती भारतवर्ष की आमलकल्पा नगरी थी, आम्रशालवन चैत्य था और उसमें भी जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ आये। वहाँ आकर श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार आदक्षिण-दक्षिण दिशा से प्रारम्भ करके प्रदक्षिणा की, उनको वंदन-नमस्कार किया और वन्दन नमस्कार करके इस प्रकार कहा हे भदन्त / हम सूर्याभदेव के अभियोगिक देव आप देवानुप्रिय को वंदन करते हैं, नमस्कार करते हैं, आप का सत्कार-संमान करते हैं एवं कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप और चैत्यरूप प्राप देवानुप्रिय को पर्युपासना करते हैं / विवेचन-मूल शरीर को न छोड़कर अर्थात् मूल शरीर में रहते हुए जीवप्रदेशों को शरीर से बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं। वेदना आदि सात कारणों से जीव-प्रदेशों के शरीर से बाहर निकलने के कारण समुद्धात के सात भेद हैं। उनमें से यहाँ वैक्रिय समुद्घात का उल्लेख है / यह वैक्रियशरीरनामकर्म के आश्रित है। वैक्रियलब्धि वाला जीव विक्रिया करते समय अपने आत्मप्रदेशों को विष्कंभ और मोटाई में शरीर परिमाण और ऊँचाई में संख्यात योजन प्रमाण दंडाकार रूप में शरीर से बाहर निकालता है। वैक्रियलब्धि से पृथक् विक्रिया भी होती है और अपृथक भी। पाभियोगिक देवों ने पहले पृथक् विक्रिया द्वारा दंड और उसके पश्चात् दूसरी बार अपने-अपने उत्तर रूप की विकुर्वणा की। इसीलिए यहाँ दो बार वैक्रिय समुद्घात करने का उल्लेख किया है। गति की तीव्रता बताने के लिए यहाँ उक्किट्राए आदि समान भाव वाले अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया है। इसी प्रकार की वाक्यपद्धति प्राचीन वैदिक व बौद्ध ग्रंथों में भी देखने को मिलती है। समानार्थक विभिन्न शब्दों का प्रयोग विवक्षित भाव पर विशेष भार डालने के लिये किया जाता है। आज भी इस पद्धति के प्रयोग देखने में आते हैं। १४.-'देवा' इ समणे भगवं महावीरे ते देवे एवं वदासी-पोराणमेयं देवा! जीयमेयं देवा / किच्चमेयं देवा! करणिज्जमेयं देवा ! प्राचिन्नमेयं देवा! प्रभणुण्णायमेयं देवा ! जंण भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया देवा अरहते भगवते वंदति नमसंति, व दित्ता नमंसित्ता तो साइं साई णाम-गोयाइं साहिति, तं पोराणमेयं देवा ! जाव प्रभणुण्णायमेयं देवा! हे देवो!' इस प्रकार से सूर्याभदेव के पाभियोगिक देवों को सम्बोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने उन देवों से कहा-हे देवो! यह पुरातन है अर्थात् प्राचीनकाल से देवों में परम्परा से चला आ रहा है / हे देवो! यह देवों का जीतकल्प है अर्थात् देवों की प्राचारपरम्परा है। हे देवो! यह देवों के लिये कृत्य-करने योग्य कार्य है / हे देवो! यह करणीय है अर्थात् देवों को करना ही चाहिये / हे देवो ! यह आचीर्ण है अर्थात् देवों द्वारा पहले भी इसी प्रकार से आचरण किया जाता रहा है / हे देवो ! यह अनुज्ञात है अर्थात् पूर्व के सब देवेन्द्रों ने संगत माना है कि भवनवासी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org