________________ आभियोगिक देवों का प्रत्यावर्तन] [21 दसद्धवन्नेणं कुसुमेणं मुक्कपुप्फयुजोक्यारकलितं करेजा, एवामेव ते सूरियाभस्स देवस्स आभिमोगिया देवा पुष्फवद्दलए विउध्वंति खिप्पामेव पतणतणायंति जाव' जोयणपरिमंडलं जलयथलयभासुरप्पभूयस्स बिट्ठाइस्स दसद्धवन्नकुसुमस्स जाणुस्सेहपमाणमेत्ति प्रोहिं वासंति वासिता कालागुरुपवरकुदुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघंतगंधुद्ध याभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधट्टिभूतं दिव्वं सुरवराभिगमणजोग्गं करेंति य कारवेति य, करेता य कारवेत्ता य खिप्पामेव उवसामंति। १७--तदनन्तर उन आभियोगिक देवों ने तीसरी बार वैक्रिय समुद्धात करके जैसे कोई तरुण यावत् कार्यकुशल मालाकारपुत्र एक बड़ी पुष्पछादिका (फूलों से भरी टोकरी) पुष्पपटलक (फूलों की पोटली) अथवा पुष्पचंगेरिका (फूलों से भरी डलिया) से कचग्रहवत् (कामुकता से हाथों में ली गई कामिनी की केश-राशि के तुल्य) फूलों को हाथ में लेकर छोड़े गये पंचरंगे पुष्पपुजों को बिखेर कर राज-प्रांगण यावत् परव (प्याऊ) को सब तरफ से समलंकृत कर देता है, उसी प्रकार से पुष्पवर्षक बादलों की विकूणा की / वे अभ्र-बादलो की तरह गरजने लगे, यावत योजन प्रमाण गोलाकार भुभाग में दीप्तिमान जलज और स्थलज पंचरंगे पृष्यों को प्रभूत मात्रा में इस तरह बरस सर्वत्र उनकी ऊँचाई एक हाथ प्रमाण हो गई एवं डंडियां नीचे और पंखुड़ियाँ ऊपर रहीं। पुष्पवर्षा करने के पश्चात् मनमोहक सुगन्ध वाले काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दुरुष्क, तुरुष्क-लोभान और धूप को जलाया। उनकी मनमोहक सुगन्ध से सारा प्रदेश महकने लगा, श्रेष्ठ सुगन्ध के कारण सुगन्ध की गुटिका जैसा बन गया। दिव्य एवं श्रेष्ठ देवों के अभिगमन योग्य हो गया / इस प्रकार से स्वयं करके और दूसरों से करवा करके उन्होंने अपने कार्य को पूर्ण किया / आभियोगिक देवों का प्रत्यावर्तन १८-जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव' वंदित्ता नमंसित्ता समणस्स भगवत्रो महावीरस्स अंतियातो अंबसालवणातो चेइयातो पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता ताए उक्किट्टाए जाव' वीइवयमाणा वीइवयमाणा जेणेव सोहम्मे कप्पे जेणेव सरियाभे विमाणे जेणेव समा सुहम्मा जेणेव सरियाभे देवे तेणेव उवागच्छंति सरियाभ द वं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अलि कट जएणं विजएणं बद्धाति बद्धावेत्ता तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति / १८-इसके पश्चात् वे आभियोगिक देव श्रमण भगवान महावीर के पास आये। वहाँ आकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार यावत वंदन नमस्कार करके श्रमण भगवान महावीर के पास से. आम्रशालवन चैत्य से निकले, निकलकर उत्कृष्ट गति से यावत् चलते-चलते जहाँ सौधर्म स्वर्ग था, जहाँ सूर्याभ विमान था, जहाँ सुधर्मा सभा थी और उसमें भी जहाँ सूर्याभदेव था वहाँ आये और दोनों हाथ जोड़ आवर्त पूर्वक मस्तक पर अंजलि करके जय विजय घोष से सूर्याभदेव का अभिनन्दन करके आज्ञा को वापस लौटाया अर्थात् आज्ञानुसार कार्य पूरा करने की सूचना दी। 1. देखें सूत्र संख्या 16 2. देखें सूत्र संख्या 13, 3. देखें सूत्र संख्या 13, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org