________________ सजा प्रस्तुत प्रागम और उसकी टोका में जड़याद और प्रात्मवाद का सुन्दर विश्लेषण हा है। स्थापत्य, संगीत और नाट्यकला के अनेक तथ्यों का इसमें समावेश है / लेखन सम्बन्धी सामग्री का भी इसमें निर्देश है। साम, दाम, दण्ड, नीति के अनेक सिद्धान्त इसमें समाविष्ट हैं। बहत्तर कलायें, चार परिषद् कलाचार्य, शिल्पाचार्य का भी इसमें निरूपण हया है। भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा से सम्बन्धित अनेक तथ्य इसमें पाये हैं। राजा प्रदेशी और केशी श्रमण का जो संवाद है, साहित्यिक दष्टि से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह संवाद कथा के विकास के लिए एक प्रादर्श लिए हुए है। इस संवाद में जो रूपक दिये गये हैं, वे प्रात्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए परम उपयोगी हैं। इनका उपयोग बाद में अन्य साहित्यकारों ने भी किया है। जैसे-प्राचार्य हरिभद्र ने समराइच्चकहा में "पिंगल' और 'विजयसिंह' के संबाद में बन्द कमरे में से भो स्वरलहरियां बाहर आती हैं, इस रूपक को प्रस्तुत किया है। राजप्रश्नीय सूत्र का सर्वप्रथम सन् 1880 में बाबू धनपतसिंहजी ने मलयगिरि वृत्ति के साथ प्रकाशन किया। उसके बाद सन 1925 में प्रागमोदय समिति बम्बई और वि० सं० 1994 में मुर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय - अहमदाबाद से सटीक प्रकाशित हुया / वी०सं० 2445 में पूज्य अमोलकऋषि जी म० के द्वारा हिन्दी अनुवाद सहित संस्करण निकला / सन् 1965 में पूज्य श्री घासीलाल जी म. ने स्वनिर्मित संस्कृत व्याख्या व हिन्दीगुजराती अनुवाद के साथ जैन शास्त्रोद्धार समिति-राजकोट से प्रकाशित किया। सन् 1935 में पं० बेचरदास जीवराज दोशी ने इसका गुजराती अनुवाद लाधाजो स्वामी पुस्तकालय-लीमड़ी से और वि० सं० 1994 में गुर्जर ग्रन्थ रत्न कार्यालय-अहमदाबाद से प्रकाशित करवाया। इस प्रकार प्राज दिन तक राजप्रश्नीय के विविध संस्करण अनेक स्थलों से प्रकाशित हुए हैं। प्रस्तुत सम्पादन राजप्रश्नीय का यह अभिनव संस्करण अागम प्रकाशन समिति ब्यावर [राज०] द्वारा प्रकाशित हो रहा है। इस के संयोजक और प्रधान सम्पादक हैं-युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म० / वे श्रमणसंघ के भावी प्राचार्य हैं। आगमों को अधुनातन भाषा में प्रकाशित करने का उनका दृढ संकल्प प्रशंसनीय है। उन्होंने प्रागमों का कार्य हाथ में लिया पर इतने स्वल्प समय में प्रश्नव्याकरण को छोड़कर शेष दश अंग प्रायः प्रकाशित हो गये हैं। भगवती का भी प्रथम भाग प्रकाशित हो चुका है। अन्य भाग भी प्रकाशन के पथ पर द्रत गति से कदम बढ़ा रहे हैं। औपपातिक और नन्दीसूत्र के बाद राजप्रश्नीय का प्रकाशन हो रहा है। अन्य आगम भी प्रेस के चक्के पर चढ़ चुके हैं। प्रागम प्रकाशन का यह कार्य राकेट की गति से हो रहा है। यदि यही गति रही तो एक-डेढ़ वर्ष में बत्तीस भागमों का प्रकाशन समिति के द्वारा पूर्ण रूप से सम्पन्न हो जायेगा / वस्तुतः यह भगीरथ कार्य युवाचार्य श्री की कीर्ति को अमर बनाने वाला है। राजप्रश्नीय के इस संस्करण को अपनी मौलिक विशेषता है-शुद्ध मूलपाठ, भावार्थ और संक्षिप्त विवेचन / विषय गम्भीर होने पर भी प्रस्तुतीकरण सरल है। पूर्व के अन्य संस्करणों को अपेक्षा यह संस्करण अधिक आकर्षक है। इसके सम्पादक है-वाणीभूषण पं० श्री रतनमुनिजो म०, जिन्होंने निष्ठा के साथ इसका सम्पादन किया है। साथ ही पं० शोभाचन्द्र जी भारिल्ल का अथक श्रम भी इसमें जुड़ा हुआ है। वृद्धावस्था होने पर भी वे जो श्रम कर रहे हैं, वह श्रम नींव की ईंट के रूप में प्रागममाला के साथ जडा हसा है। यदि वे तन, मन के साथ श्रुतसेवा के इस महायज्ञ में जुड़े नहीं होते तो यह कार्य इस रूप में सम्पन्न शायद ही हो पाता। राजप्रश्नीय पर मैं बहुत विस्तार के साथ प्रस्तावना लिखना चाहता था। आत्मवाद के गम्भीर विषय को विभिन्न दर्शनों के आलोक में प्रस्तुत करना चाहता था पर मेरा स्वास्थ्य लम्बे समय से अस्वस्थ-सा रहा, जिसके [38] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org