________________ उपयोगी हैं / वास्तविक रूप से देखा जाय तो यही संवाद राजप्रश्नीय की आत्मा है। जिस तरह से राजप्रश्नीय में प्रश्नोत्तर हैं, उसी तरह दीध-निकाय के 'पायासिसुत्त' में राजा 'पायासि' के प्रश्नोत्तर हैं। जो इन प्रश्नों से यह भी सम्भव है कि जनमानस में आत्मा और शरीर की अभिन्नता को लेकर जो चिन्तन चल रहा था, उसका प्रतिनिधित्व राजा प्रदेशी ने किया हो और जैन दृष्टि से उसका समाधान केशी श्रमण ने किया हो। राजा प्रदेशी का जीवन अत्यन्त उग्र रहा है। उसके हाथ रक्त से सने हुए रहते थे पर केशी श्रमण के सान्निध्य ने उसके जीवन में मामूल-चूल परिवर्तन कर दिया। महारानी के द्वारा जहर .देने पर भी उसके मन में किंचित् मात्र भी रोष पैदा नहीं हुआ। जिस जीवन में पहले क्रोध की ज्वाला धधक रही थी, वही जीवन क्षमासागर के रूप में परिवर्तित हो गया / इसलिए सत्संग की महिमा और गरिमा का यत्र-तत्र उल्लेख हुआ है। व्याख्या-साहित्य राजप्रश्नीय कथाप्रधान पागम होने से इस पर न नियुक्ति लिखी गई, न भाष्य की रचना हई और न चणि का निर्माण ही हा। इस पर सर्वप्रथम आचार्य मलयगिरि ने संस्कृत भाषा में टीकानिर्माण किया / संस्कृत टीकाकारों में प्राचार्य मलयगिरि का स्थान विशिष्ट है / जिस प्रकार वैदिक पम्परा में वाचस्पति मिश्र ने षट्दर्शनों पर महत्वपूर्ण टीकाएँ लिखकर एक भव्य आदर्श उपस्थित किया, वैसे हो जैन साहित्य पर प्राचार्य मलयगिरि ने प्रांजल भाषा और प्रवाहपूर्ण शैली में भावपूर्ण टोकाएँ लिखकर एक पादर्श उपस्थित किया। वे दर्शनशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे। उनमें ग्रागमों के गम्भीर रहस्यों को तर्कपूर्ण शैली से व्यक्त करने की अदभत कला और क्षमता थो। आगमप्रभावक मुनि पुण्य विजय जी महाराज के शब्दों में कहा जाय तो 'व्याख्याकारों में उनका स्थान सर्वोत्कृष्ट है।' ___ मलयगिरि अपनी वृत्तियों में सर्वप्रथम मूलसूत्र, गाथा या श्लोक के शब्दार्थ की व्याख्या कर उसके अर्थ का स्पष्ट निर्देश करते हैं और उसकी विस्तृत विवेचना करते हैं, जिससे उसका अभीष्टार्थ पूर्णरूप से स्पष्ट हो जाता है। विषय से सम्बन्धित अन्य प्रासंगिक विषयों पर विचार करना तथा प्राचीन ग्रन्थों के प्रमाण प्रस्तुत करना आचार्यश्री की अपनी विशेषता है। टीकाकार ने सर्वप्रथम श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार किया है। उसके पश्चात राजप्रश्नीय पर विवरण लिखने की प्रतिज्ञा की।१४६ साथ ही इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि प्रस्तुत प्रागम का नाम राजप्रश्नीय क्यों रखा गया है। इस सम्बन्ध में लिखा है-यह पागम राजा के प्रश्नों से सम्बन्धित है, इसीलिए इसका नाम 'राजप्रश्नीय' है / टीकाकार ने यह भी बताया है कि यह पागम सूत्रकृतांग का उपांग है। टोका में, आगम में पाये हुए विशिष्ट शब्दों की मीमांसा भी की है। मीमांसा में टीकाकार का गम्भीर पाण्डित्य उजागर हुआ है। टीका का ग्रन्य-प्रमाण तीन हजार सात सौ श्लोक प्रमाण है। टोका में अनेक स्थलों पर जीवाजीवाभिगम के उद्धरण दिये हैं। कहीं-कहीं पर पाठभेद का भी निर्देश किया है। देशोनाममाला के उद्धरण भी दिये गये हैं।१४७ 146. प्रणमत वीरजिनेश्वरचरणयुगं परमपाटलच्छायम् / अधरीकृतनतवासवमुकुट स्थितरत्नरुचिचक्रम् // 1 // राजप्रश्नीयमहं विवृणोमि यथाऽऽगमं गुरुनियोगात् / तत्र च शक्तिमशक्ति गुरवो जानन्ति का चिन्ता // 2 // 147. पहकराः संघाता:-पहकर-योरोह-संघाया इति देशीनाममालावचनात् / –राजप्रश्नीयवृत्ति, गृष्ठ 3 [ 37 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org