________________ 12] [ राजप्रश्नीयसूत्र बहि सरियाभविमाणवासोहि वेमाणिएहि देहि य देवीहि य सद्धि संपरिवड़े महयाहय नट्टगोय-वाइय-तंतो-तल-ताल-तुडिय-घणमुइंगपडुप्पवादियरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुञ्जमाणे विहरति / इमं च णं केवलकप्पं जम्बुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा प्राभोएमाणे-प्राभोएमाणे पासति / उस काल में अर्थात् श्रमण भगवान महावीर स्वामी के विहरण काल में और उस समय में अर्थात् भगवान् के आमल कल्पा नगरी के आम्रशालवन चैत्य में विराजने के समय में सूर्याभ नामक देव सौधर्म स्वर्ग में सूर्याभ नामक विमान की सुधर्मा सभा में सूर्याभ सिंहासन पर बैठकर चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार अग्रमहिषियों, तीन परिषदाओं, सात अनीकों-सेनाओं, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों तथा और दूसरे बहुत से सूर्याभ विमानवासी वैमानिक देवदेवियों सहित अव्याहत निरन्तर नाटय एवं निपुण पुरुषों द्वारा वादित-बजाये जा रहे तंत्री-वीणा हस्तताल, कांस्यताल और अन्यान्य वादित्रों-वाधों तथा घनमृदंग-मेघ के समान ध्वनि करने वाले मृदंगों की ध्वनि (आवाज) के साथ दिव्य भोगने योग्य भोगों को भोगता हुमा विचर रहा था / उस समय उसने अपने विपुल अवधिज्ञानोपयोग द्वारा निरखते हुए इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीपनामक द्वीप को देखा। विवेचन-सूत्र में सूर्याभदेव के सभावैभव का वर्णन है। सभा में उपस्थित देव-देवियों का निर्देश इन शब्दों में किया है--- सामानिक देव -आज्ञा और ऐश्वर्य के अतिरिक्त ये सभी देव विमानाधिपति देव के समान द्युति, वैभव आदि से संपन्न होते हैं और इनको भाई आदि के तुल्य पादर-संमान योग्य माना जाता है। अग्रमहिषी कृताभिषेका राजा की पत्नी महिषी और शेष अकृताभिषेका अन्य स्त्रियां भोगिनी कहलाती हैं (या कृताभिषेका नपस्त्री सा महिषी, अन्या अकृताभिषका नृपस्त्रियो भोगिन्य इत्युच्यन्ते-अमरकोश द्वितीय कांड, मनुष्यवर्ग, श्लोक 5) / अपनी परिवारभूत अन्य सभी पत्नियों में उसकी अग्रता—प्रधानता, मुख्यता-बताने के लिये महिषी के साथ अग्र विशेषण का प्रयोग किया जाता है। तीन परिषदा-सभी विमानाधिपति देवों की--१. अभ्यन्तर, 2. मध्यम और 3. बाह्य ये तीन परिषदायें होती हैं। जिनसे अपने अंतरंग, गुप्त गूढ़ रहस्यों के लिये विचार किया जाता है, ऐसे परमविश्वसनीय समवयस्क मित्र समुदाय को अभ्यन्तर परिषद, अभ्यन्तर परिषद में चचित एवं निर्णीत विचारों के लिये जिससे सम्मति, राय ली जाती है, उसे मध्यमपरिषद और अभ्यन्तर तथा मध्यम परिषद द्वारा विचारित, निर्णीत एवं सम्मत कार्य को क्रियान्वित करने का दायित्व जिसे दिया जाता है, उसे बाह्यपरिषद कहते हैं। सात सेनायें-अश्व, गज, रथ, पदाति, वृषभ (बैल), गंधर्व और नाटय ये सेनाओं के सात प्रकार हैं। इनमें से आदि की पांच का युद्धार्थ और अंतिम दो का आमोद-प्रमोद के लिये उपयोग किया जाता है और ये अपने अपने अधिपति के नेतृत्व में कार्य संपादित करने में सक्षम होने से इनके सात सेनापति होते हैं। प्रात्मरक्षक देव-शिरस्त्राण जैसे प्राणरक्षक होता है, उसी प्रकार ये देव भी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने अधिपतिदेव की रक्षा करने में तत्पर रहने से प्रात्मरक्षक कहलाते हैं / यद्यपि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org