________________ चैत्य वर्णन ] [7 वर्तिका जैसा मालूम होता था। नट, नृत्यकार, रस्सी पर खेल दिखाने वालों, मल्ल, पंजा लड़ाने वालों, बहुरूपिया, तैरने वालों, कथा कहानी कहने वालों, रास रचने वालों, शुभ-अशुभ शकुन बताने वालों, ऊंचे बांस पर खेल दिखाने वालों, चित्र दिखाकर भीख मांगने वालों, शहनाई बजाने वालों, तंबूरा बजाने वालों, भोजक—गाने वालों, मागध-चारण, भाट आदि से वह चैत्य सदा व्याप्त--घिरा रहता था। नगरवासियों और दूर-देशवासियों में इसकी प्रसिद्धि-कीति फैली हुई थी जिससे बहुत से लोग वहाँ पाहुति-जात देने आते रहते थे। वे उसे दक्षिणा-पात्र दान देने योग्य स्थान, अर्चनीय, वंदनीय, नमस्करणीय, पूजनीय, सत्कारणीय, सम्माननीय मानते थे तथा कल्याणरूप मंगलरूप, देवरूप और चैत्यरूप मानकर विनयपूर्वक उपासना--सेवा करने योग्य मानते थे / दिव्य, सत्य और कामना सफल करने वाला समझते थे। यज्ञ में इसके नाम पर हजारों लोग दान देते थे और बहुत से लोग आ आकर इस पाम्रशालवन चैत्य की जय जयकार करते हुए अर्चना भक्ति करते थे। विवेचन—ाम्रशालवन चैत्य के उपर्युक्त वर्णन से हमें तत्कालीन लोक-संस्कृति एवं जन मानस का ठीक-ठीक परिचय मिलता है कि चैत्य जन सामान्य के लिये मनोरंजन, क्रीड़ा आदि के स्थान होने के साथ साथ अपनी कामनाओं की पूत्ति हेतु आहुति-जात देने आदि के भी केन्द्र थे / ३-असोगवर पायवे, पुढवी सिलापट्टए, बत्तव्यया उववाइयगमेणं णेयां। ३–उस चैत्यवर्ती श्रेष्ठ अशोकवृक्ष और पृथ्वीशिलापट्टक का वर्णन उववाईसूत्र के अनुसार जानना चाहिये। विवेचन----अशोक वृक्ष के उल्लेख से ऐसा प्रतीत होता है कि वृक्षपूजा की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है / इसके पीछे वृक्षों की उपयोगिता, अथवा किसी पुण्य पुरुष का स्मरण अथवा वहम कारण है, यह विचारणीय और शोध का विषय है। उववाई सूत्र में अशोक वृक्ष, पृथ्वीशिलापट्टक का विस्तार से वर्णन किया है। वही सब वर्णन यहाँ समझ लेने की सूत्र में सूचना की है। उसका सारांश इस प्रकार है चैत्य को चारों ओर से घेरे हुए वन खण्ड के बीचोंबीच एक विशाल, ऊंचा दर्शनीय और असाधारण रूपसौन्दर्य सम्पन्न अशोक वृक्ष था। वह अशोकवृक्ष भी और दूसरे लकुच, शिरीष, धव, चन्दन, अर्जुन, कदम्ब, अनार, शाल, आदि वृक्षों से घिरा हुआ था / ये सभी वृक्ष मूल, कंद, स्कन्ध, छाल, शाखा, प्रवाल-पत्र, पुष्प, फल और बीज से युक्त थे / इनकी शाखा-प्रशाखायें चारों ओर फैली हुई थीं और पत्र, पल्लव, फल-फूलों आदि से सुशोभित थीं। इन वृक्षों पर मोर, मैना, कोयल, कलहंस, सारस आदि पक्षी इधर उधर उड़ते और मधुर कलरव करते रहते थे। भ्रमर-समूह के गुजारव से व्याप्त थे। इस वृक्षघटा की शोभा में विशेष वृद्धि करने के लिये कहीं जाली झरोखों वाली चौकोर बावड़ियाँ, कहीं गोल बावड़ियाँ, कहीं पुष्करणियां, प्रादि बनी हुई थीं। पद्मवेल, नागरवेल, अशोकवेल, चंपावेल, माधवीवेल, आदि वेलें इस वृक्षराजि से लिपटी हुई थी और ये सभी वेलें फूलों के भार से नमी रहती थीं। उक्त वनराजि से विराजित उस उत्तम अशोकवृक्ष पर रत्नों से बने हुए, देदीप्यमान, दर्शनीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org