________________ गाड़ दिया और भूत से कहा-मैं जब तक तुम्हें नया काम नहीं बताऊँ जब तक तुम इस खम्भे पर चढ़ते-उतरते रहो। 42 सारांश यह है कि इन उत्सवों को बहुत अधिक धूमधाम होती थी, जिससे कोई भी धूमधाम को देख कर प्रायः यही समझा जाता था कि आज कोई इसी तरह का उत्सव होगा / चित्त सारथी के अन्तर्मानस में भी यही जिज्ञासा हुई थी-जनमेदिनी को जाते हुए देखकर / वस्तुतः ये उत्सव किसी धर्म और सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्धित न होकर लोकजीवन से सम्बन्धित थे / इन उत्सवों के पीछे लौकिक कामनायें थीं / जनमानस में समाया भय भी इन उत्सवों को मनाने के लिए बाध्य करता था। श्वेताम्बिका में केशी श्रमण चित्त सारथी को जब यह परिज्ञात हुआ कि केशी कुमारश्रमण पधारे हैं तो वह दर्शन और प्रवचन-श्रवण करने के लिए पहुँचा / प्रवचन को श्रवण कर वह इतना भावविभोर हो गया कि उसने श्रमणोपासक के द्वादश व्रत ग्रहण कर अपनी अनन्त श्रद्धा उनके चरणों में समर्पित की। जब चित्त सारथी श्वेताम्बिका लौटने लगा तो उसने केशी कुमारश्रमण से अभ्यर्थना की-याप श्वेताम्बिका अवश्य पधारें। पूनः-पुनः निवेदन करने पर के शीश्रमण ने कहा कि वहाँ का राजा प्रदेशी अधार्मिक है, इसलिए मैं वहाँ कैसे पा सकता हूँ? चित्त ने निवेदन किया--भगवन् ! प्रदेशी के अतिरिक्त वहाँ पर अनेक भावुक आत्माएँ रहती हैं, जो अपने बीच आपको पाकर धन्यता अनुभव करेंगी। सम्भव है, अापके पावन प्रवचनों से प्रदेशी के जीवन का भी काया-कल्प हो जाये / केशी कुमारश्रमण को लगा कि चित्त सारथी के तर्क में वजन है। वहाँ जाने से धर्म की प्रभावना हो सकती है। चित्त सारथी ने केशीकुमार की मुद्रा से समझ लिया कि मेरी प्रार्थना अवश्य ही मूर्त रूप लेगी। उसने श्वेताम्बिका पहुँच कर सर्वप्रथम उद्यानपाल को सूचित किया कि केशीश्रमण अपने 500 शिष्यों के साथ यहाँ पर पधारेंगे, अतः उनके ठहरने के लिए योग्य व्यवस्था का ध्यान रखना। कुछ दिनों के पश्चात केशीश्रमण श्वेताम्बिका नगरी में पधारे। उद्यानपालक ने उनके ठहरने की समुचित व्यवस्था की और चित्त सारथी को उनके प्रागमन को सूचना दी। चित्त सारथी समाचार पाक से झम उठा / वह दर्शन के लिए पहुँचा। उसने निवेदन किया-मैं किसी बहाने से राजा प्रदेशी को यहाँ लाऊँमा। आप डटकर उसका पथ-प्रदर्शन करना। दूसरे दिन चित्त सारथी अभिनव शिक्षित घोड़ों की परीक्षा के बहाने राजा प्रदेशी को उद्यान में ले गया, जहाँ केशी कुमारश्रमण विराज रहे थे। चित्त सारथी ने राजा को बताया—ये चार ज्ञान के धारक कुमारश्रमण केशी हैं / हम यह पूर्व में ही बता चुके हैं कि राजा प्रदेशी प्रक्रियावादी था। उसे प्रात्मा के स्वतंत्र अस्तित्व पर विश्वास नहीं था / वह अात्मा और शरीर को एक ही मानता था। प्रात्मा : एक अनुचिन्तन भारतीय दर्शन का विकास और विस्तार अात्मतत्त्व को केन्द्र मानकर ही हुआ है। आत्मवादी दर्शन हों या अनात्मवादी, सभी में प्रात्मा के विषय में चिन्तन किया है। किन्तु उस चिन्तन में एकरूपता नहीं है। प्रात्मा विश्व के समस्त पदार्थों से विलक्षण है। प्रत्येक व्यक्ति प्रात्मा का अनुभव तो करता है, किन्तु उसे अभिव्यक्त नहीं कर 142. बृहत्कल्पभाष्यवृत्ति--३. 4214-22. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org