________________ से मढ़ा हुया वाद्य, भेरी, डिडिम, मृदंग आदि हैं। ये वाद्य मानव की कोमल भावनाओं को उद्दीपित करते हैं और वीरोचित उत्साह बढ़ाते हैं / इसलिए धार्मिक उत्सव और युद्ध के प्रसंगों पर इनका उपयोग होता था। विज्ञों का यह भी मानना है कि मुरज, पटह, डक्का, विश्वक, दर्पवाद्य, घण, पणव, सरुहा, लाव, जाहब, त्रिवली, करट, कमठ, भेरी, कुडुक्का, हुडुक्का, झनसमुरली, झल्ली, ढुक्कली, दौंडी, शान, डमरू, ढमुकी, मड्डू, कुडली, स्तुंग, दुंदुभी, अंग, मर्छल, अणीकस्थ ग्रादि वाद्य भी वितत के अन्तर्गत आते हैं।६४ घन-कांस्य आदि धातुओं से बने हुए वाद्य 'धन' कहलाते हैं। करताल, कांस्यवन, नयभटा शुक्तिका, कण्ठिका, पटवाद्य, पट्टाघोष, धर्घर, झंझताल, मंजिर, कर्तरी, उष्णकक, प्रादि धन के अनेक प्रकार हैं / निशीथ मे 5 घन शब्द के अन्तर्गत ताल, कंसताल, लत्तिय, गोहिय, मक्करीय, कच्छभी, महत्ती, सणालिया और वालिया प्रादि वाद्य धन में सम्मिलित किए गये हैं। मुधिर—फक से बजाये जाने वाले वाद्य 'शुषिर' हैं। भरतमुनि ने शूषिर के अन्तर्गत वंश को अंगभूत तथा शंख, डिविकणी प्रादि वाद्यों को प्रत्यंग माना है। इस प्रकार प्राचीन साहित्य में वाद्यों के सम्बन्ध में विविध रूप से चर्चायें हैं / हमने संक्षेप में ही यहाँ कुछ उल्लेख किया है। नाटक : एक चिन्तन : सूर्याभ देव ने देव कुमारों और देव कुमारियों को आदेश दिया कि वे नाट्यविधि का प्रदर्शन करें / वे सभी एक साथ नीचे झुके और एक साथ मस्तक ऊपर उठाकर उन्होंने अपना नृत्य और गीत प्रारम्भ किया। उसके पश्चात् बत्तीस प्रकार की नाट्यविधियां प्रदशित की -- 1. स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य और दर्पण के दिव्य अभिनय-- ग्राचार्य मलय गिरि६६ के अनुसार इन नाट्यविधियों का उल्लेख चतुर्दश पूर्वो के अन्तर्गत नाट्यविधि नामक प्राभत में था, पर वह प्राभत वर्तमान में विच्छिन्न हो गया है। महाभारत में स्वस्तिक, वर्धमान और नन्द्यावर्त का उल्लेख है। अंगुत्तरनिकाय में नन्द्यावर्त का अर्थ मछली किया है।६८ भरत के नाट्यशास्त्र में स्वस्तिक को चतुर्थ और वर्धमानक को तेरहवां नाट्य बताया है। प्रस्तुत अभिनय में भरत के नाट्यशास्त्र में उल्लखित प्रांगिक अभिनय के द्वारा नाटक करने वाले, स्वस्तिक प्रादि अाठ मंगलों का प्राकार बनाकर खड़े हो जाते और फिर हाथ आदि के द्वारा उस आकार का प्रदर्शन करते तथा वाचिक अभिनय के द्वारा मंगल शब्द का उच्चारण करते। जिससे दर्शकों के अन्तर्हृदय में उस मंगल के प्रति रतिभाव समुत्पन्न होता।६६ 2. आवर्त,७° प्रत्यावर्त, श्रेणी, प्रश्रेणी, स्वस्तिक, सौवस्तिक, पुष्यमानव, वर्धमानक, [कंधे पर बैठे 64. प्राचीन भारत के वाद्ययन्त्र-कल्याण (हिन्दुसंस्कृति अंक) पृष्ठ–७२१-७२२ .65. निसीहझयणं-१७ / 139. 66. राजप्रश्नीय टीका, पृष्ठ-१३६ 67. महाभारत-७, 82, 20 68. डिक्शनरी प्रॉफ पालि प्रॉपर नेम्स, भाग-२, पृष्ठ-२९ - मलालसेकर 69. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका 5, पृष्ठ-४१४ / 70. भ्रमभ्रमरिकादानैर्नर्तनम् आवर्तः, तद्विपरीतः प्रत्यावर्तः। -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका 5, पृष्ठ-४१४ [25] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org