Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 30 सूत्रकृतांग--प्रथम अध्ययन-समय मान से सिद्ध हो जाता है-तत्काल जन्मे हुए बालक को माता के स्तनपान की इच्छा पूर्वजन्म में किये गए स्तनपान के प्रत्यभिज्ञान के कारण होती है। इससे पूर्वजन्म सिद्ध होता है, और पूर्वजन्म सिद्ध होने से अगला जन्म (परलोक) भी सिद्ध हो जाता है / अतः आत्मा का परलोकगमन शुभाशुभ कर्मों के अनुसार अवश्य होता है इस प्रकार धर्मीरूप आत्मा का पृथक् अस्तित्व सिद्ध होने से उसके धर्मरूप पुण्य-पाप की सिद्धि हो जाती है / पुण्य-पाप को न मानने पर जगत् में प्रत्यक्ष दृश्यमान ये सुखी-दुःखी आदि विचित्रताएँ, फलस्वरूप ही हैं, कैसे संगत हो सकती हैं ? पुण्य-पापरूप कर्म मानने पर ही उनके फलस्वरूप चतुर्गतिरूप संसार (लोक) घटित हो सकता है, अथवा लोकगत विचित्रताएँ सिद्ध हो सकती हैं। इसीलिए तज्जीव तच्छरीरवादियों के प्रति आक्षेप किया है-लोएसिआ? अकारकवावी सांख्यादि मतवादियों के लिए भी यही आपत्ति शास्त्रकार ने उठाई है-'आत्मा को एकान्त कूटस्थ नित्य, अमूर्त, सर्वव्यापी एवं निष्क्रिय (अकर्ता) मानने पर प्रत्यक्ष दृश्यमान जन्म-मरणादि रूप अथवा नरकादिगतिगमनरूप यह लोक (संसार प्रपञ्च) कैसे सिद्ध होगा? क्योंकि कूटस्थ नित्य आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में, एक गति या योनि छोड़कर दूसरी गति या योनि में कैसे जन्म-मरण करेगा ? तथा एक ही शरीर में बालक, युवक, वृद्ध आदि पर्यायों को धारण करना कैसे सम्भव होगा? अगर कर्मानुसार जीवों का गमनागमन नहीं माना जाएगा तो जन्म-मरण आदि रूप संसार कैसे घटित होगा? कटस्थ नित्य आत्मा तो अपरिवर्तनशील, एक रूप में ही रहने वाला है, ऐसी मान्यता से बालक सदैव बालक, मूर्ख सदैव मूर्ख ही रहेगा, उसमें किसी नये स्वभाव की उत्पत्ति नहीं होगी। ऐसी स्थिति में जन्ममरणादि दुःखों का विनाश, उसके लिए पुरुषार्थ, कर्मक्षयार्थ तप, जप, संयमनियम आदि की साधना सम्भव नहीं होगी। नियुक्तिकार ने अकारकवाद पर आपत्ति उठाई है कि 'जब आत्मा कर्ता नहीं है और उसका किया हुआ कर्म नहीं है, वह बिना कर्म किये उसका सुखदुःखादि फल कैसे भोग सकता है ? यदि कर्म किये बिना ही फलभोग माना जाएगा तो दो दोषापत्तियाँ खड़ी होंगी 1. कृतनाश और 2. अकृतागम / फिर तो एक प्राणी के किये हुए पाप से सबको दुःखी और एक के किये हुए पुण्य से सबको सुखी हो जाना चाहिए। किन्तु यह असम्भव और अनुभव विरुद्ध है, तथा अभीष्ट भी नहीं है। आत्मा यदि व्यापक एवं नित्य है तो उसकी नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव तथा मोक्षरूप पाँच प्रकार की गति भी नहीं हो सकती, ऐसी स्थिति में सांख्यवादियों द्वारा काषायवस्त्र धारण, शिरोमुण्डन, दण्डधारण, भिक्षान्नभोजन, यम-नियमादि अनुष्ठान वगैरह साधनाएँ व्यर्थ हो जाएंगी। इसीप्रकार एकान्तरूप से मिथ्याग्रहवश आत्मा को निष्क्रिय कूटस्थ नित्य मानकर बैठने से न तो त्रिविध दुःखों का सर्वथा नाश होगा, न ही मोक्षादि की प्राप्ति होगी, और कूटस्थ नित्य निष्क्रिय 46 'अप्रच्युताऽनुप्पन्न-स्थिरैकस्वभावः नित्यः / -जो विनष्ट न हो, उत्पन्न न हो स्थिर हो, सदा एक स्वभाव वाला हो वह कूटस्थ नित्य कहलाता है। -सांख्य तत्व कौमुदी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org