Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १० समाधिस्वरूपनिरूपणम् ९३ आयं न कुजा इंह जीवियट्टी,
चयं न कुज्जा सुतवस्सि भिक्खू ॥३॥ छाया-स्वरूपातधर्मा विचित्ला तीर्णः, लाहचरेदात्मतुल्यः प्रजासु ।
आयं न कुर्यादिह जीवितार्थी, चयन कुर्यात् मुतपस्वी भिक्षुः ॥३॥ अन्वयार्थ:--(सुयक्खायधम्मे) स्वाख्यातधर्मा-सु-सष्ठु आख्यातः श्रुतचारित्ररूपो धर्मों येन तथाविधः (विविगिच्छतिन्ने) विचिकित्सातीर्ण:-विचिकि'सुयक्खायधम्म' इत्यादि
शब्दार्थ-'सुयक्खाधक्षम्मे- स्वारस्यातधर्मा' श्रुत और चारित्र धर्मको अच्छीतरह प्रतिपादन करने वाला 'वितिगिच्छति-ने-विचि, कित्सा तीर्णः' तथा तीर्थकर प्रतिपादित धर्म में शंका न करने वाला 'लाढे-लाढः' तथा प्रासुक आहार से अपना निर्वाह करनेवाला 'सुतव. स्सि भिक्खू-सुतपस्विभिक्षुः उत्तम तपस्वी साधु 'पपासु आयतुल्ले -प्रजासु आत्मतुल्य:' पृथिवीकायिक आदि छकाय के जीवों को आत्मतुल्य समझता हुवा 'चरे-चरेत्' संयम का पालन करे 'इह जीवियट्ठीइह जीवितार्थी' तथा इसलोक में जीने की इच्छा से 'आयं न कुज्जा. आयम् न कुर्यात्' आश्रवों का सेवन न करे 'चयं न कुज्जा-चयम् न कुर्यात्' एवं भविष्य कालके लिये संचय न करे ॥३॥ ___ अन्वयार्थ-श्रुत और चारित्र रूप धर्म का सुन्दर व्याख्यान करने वाला, विचिकित्सा अर्थात् चित्त की अस्थिरता या जुगुप्सा से अति
'सुयक्खाय धम्मे' त्याल
Avale – 'सुयक्खायधम्मे-स्वाख्यातधर्मा' श्रुत अने यात्रि २ सारी रीते प्रतिपादन ४२वा 'वितिगिच्छतिन्ने-विचिकित्सातीर्णः' तथा तीथ ४२ प्रतिपाहित भो । न ४२३।३। 'लढे-ल'ढः' प्रासुर मासारथी पाताने निर्वाड ४२३n 'सुतवस्सिभिक्खू-सुतपस्थिभिक्षुः' उत्तम तवा सेवा साधु पयासु आयतुल्ले-प्रजासु आत्मतुल्यः' ५istlix वोन पोताना समान समलने 'चरे-चरेत्' सयभनुपालन ४२ 'इह जीवियदी-इह जीविताथी' तथा मामा पानी थी 'आयं न कुज्जा-आयम् न कुर्यात्' माश्रयानु सेवन न ४२ 'चयं न कुजा-चयं न कुर्यात्' भविष्यने भाट धन ધાન્ય વિગેરેનો સંગ્રહ ન કરે છે
અવયાર્થ–-શ્રત અને ચારિત્ર રૂપ ધર્મનું સુંદર વ્યાખ્યાન કરવાવાળા વિચિકિત્સા અર્થાત ચિત્તની અસ્થિરતા અથવા જુગુપ્સા-નિદાથી રહિત,
श्री सूत्रकृतांग सूत्र : 3