Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 514
________________ समयाबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १५ आदानीयस्वरूपनिरूपणम् ५०३ तपोरूपानुकूलमारुतेरितः दुःखसंकुलासंसारसागरात् मोक्षरूपं तीरं समवाप्य सर्वदुःखेभ्यो दूरी भूय साधपर्यवसितमनन्तमव्याबाधं सिद्धिमुखमनुभवतीति भावः।५। मूलम्-तिउदृइ उ मेहावी जाणं लोगसि पावगं । तुदृति पावकम्माणि नवं कम्म मकुवओ॥६॥ छाया-त्रुटयति तु मेधावी जानन लोके पापकम् ।। त्रुटयंति पापकर्माणि नवं कर्माकुर्वतः ॥६॥ से दूर होकर विश्राम को प्राप्त होती है, उसी प्रकार वह मुनि भी समस्त दुःखों का अन्त करने वाला होता है। तात्पर्य यह है कि भावनायोग से जिस की आत्मा शुद्ध है ऐसा जीव जिनोक्त आगम रूपी निर्यामक द्वारा अधिष्ठित तथा तपस्या रूपी अनुकूल वायु से प्रेरित होकर दुःखों से व्याप्त संसार सागर से मोक्ष रूपी तीर को प्राप्त करके, सब दुःखों से दूर होकर सादि अपर्यवसित, अनन्त अव्यावाध सिद्धिसुख को अनुभव करने लगता है ॥५॥ 'तिउ उ मेहावी' इत्यादि । शब्दार्थ-'मेहावी उ-मेधावी तु' सदसद्विवेकी मर्यादापालक मुनि 'लोगंसि-लोके' स्थावर जंगमात्मक अथवा पंचास्तिकायात्मक जगत् में 'पावगं-पापकम्' सायद्यानुष्ठानरूप पापकर्म 'जाणं-जानन्' ज्ञपरिज्ञासे कर्मबन्धके हेतुरूप जानकर के 'ति उट्टइ-त्रुटयति' पृथक् होजाते સઘળા દુખેથી દૂર થઈને વિશ્રામ પ્રાપ્ત કરે છે. એ જ પ્રમાણે તે મુનિ પણ સઘળા દુઃખને અંત કરનારા થાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે–ભાવનાગથી જેઓને આત્મા શુદ્ધ છે. એ જીવ કનેક્ત આગમ રૂપ અનુકૂળ વાયુથી પ્રેરણા પામીને દુખેથી વ્યાપ્ત એવા આ સંસાર સાગરથી મેક્ષ રૂપી કિનારાને પ્રાપ્ત કરીને, સઘળા દુખેથી દૂર થઈને સાદિ અપર્યાવસિત, અનંત, અવ્યાબાધ સિદ્ધિ રૂપ સુખનો અનુભવ કરવા લાગે છે. પાપા 'तिउट्टइ उ मेहावी' त्या शहा- 'मेहावी उ-मेधावी तु' स६ असतू अपने नापाको अति भाहो पा मुनि 'लोग सि-लोके' स्था१२ गमात्म अथवा यास्ति याम तुमा 'पावर्ग-पापकम्' सावधानुष्ठान ३५ ५।५४ 'जाणं-जानन्' २ परिज्ञाथी भयना हेतु ३५ onenने 'तिउदृइ-त्रुथ्यति' सय 45 नय श्री सूत्रकृतांग सूत्र : 3

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