Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 532
________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १५ आदानीयस्वरूपनिरूपणम् ५२१ नाश्रित्याऽनेकधा भिद्यते । नारिकेलनिम्बजंबीरादौ यथोपवर्णितभेदस्य सर्वाऽनुभवसिदत्वात् । तथाचोक्तम् ___ 'देशना लोकनाथानां सत्त्वाशयवशंवदाः। भिद्यन्ते बहुधा लोके उपायैर्वहुभिः पुनः ॥१॥इति॥ यद्यपि भव्ये एव तदनुशासनं फलति न तु तदभव्ये, तथापि तत्र सर्वोपायज्ञस्य भगवतो नो दोषः, किन्तु तत्र तत्र तादृशजीवानामेव स दोषो यत्तदन्तःकरणेन सह तथा परिणमति । उक्तंच 'सद्धर्मबीजवपनानघकौशलस्य, यल्लोकबान्धव ! तवापि खिलान्यभूवन् । तन्नाद्भुतं खगकुलेष्विह तामसेषु सूयशिवो मधुकरी चरणावदाताः ॥१॥इति।। प्रकार का हो जाता है। नारियल नीम और नींबू आदि में उक्त विभि. न्नता सभी को अनुभव में आती है। कहा है 'देशना लोक नाथानाम्' इत्यादि। __'लोक के नाथों-तीर्थंकरों की देशना श्रोता जीवों के अभिप्राय के अनुसार इस लोक में अनेक प्रकार की हो जाती है और वह अनेक कारणों से नाना रूपों में परिणत होती है।' ___ यद्यपि भगवान् की धर्मदेशना भव्य जीव में ही फलवान होती है, अभव्य में नहीं, तथापि सभी उपायों के ज्ञाता भगवान का इसमें कोई दोष नहीं है। यह तो उन श्रोताओं का ही दोष है कि उनके अन्तःकरण के संसर्ग से वह उस प्रकार परिणत हो जाती है। कहा भी है-'सद्धर्मधीजवपनानघ कौशलस्य' इत्यादि। નારીયેલ, લીમડે અને લીંબૂ વિગેરેમાં તે ભિન્ન પણ બધાને અનુભવમાં આવે छ, धु ५५ छ -'देशना लोकनाथानाम्' इत्यादि લેકનાના-તીર્થકરેની દેશના શ્રોતાજનેના અભિપ્રાય પ્રમાણે આ લોકમાં અનેક પ્રકારની થઈ જાય છે અને તે અનેક કારણેથી અનેક રૂપમાં પરિણમી જાય છે. જે કે ભગવાનની ધર્મદેશના ભવ્ય જીવમાં જ ફલવાનું હોય છે, આભવ્યમાં નહીં, તે પણ સઘળા ઉપાયને જાણનારા ભગવાનનો આમાં કાંઈજ દેષ નથી. આ તે તે શ્રોતાઓને જ દોષ છે કે–તેમના અંતઃકરણના સંસगया तो रीत परिणत 25 14 छे. ४ ५ -'सद्धर्मबीजपवपना नघकौशलस्य' त्यादि श्री सूत्रतांग सूत्र : 3

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