Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 585
________________ - ५७४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे सत्संयमयुक्तः, 'वोसहकाए' व्युत्सृष्टकायः निष्पतिकमतया परित्यक्तकायममत्वः 'समणे त्ति वच्चे' श्रमण इति वाच्यः-पूर्वोक्तसर्वगुणविशिष्टः यः सः-श्रमणतया वाच्यो भवतीति भावः ॥५०४॥ ___ माहन शब्दस्य यत् प्रवृत्तिनिमित्तं कथितं तस्यानुवृत्तिः श्रमणेऽपि समधिगतम् तद्वदिहापि, माहनशब्दस्य यत् पापाद्विरत्यादिकं पतिपादितं तत्सर्वमेव भिक्षुशब्देपि संयोजनीयम्--इत्याशयेन प्रतिपाद्यते 'एस्थ वि' इत्यादि। ___ मूलम्-एत्थ विभिक्खू अणुनए विणीए नामए दंतेदविए वोसट्रकाए संविधुणीय विरूवरूवे परिसहोवसग्गे अज्झप्पजोग सुद्धादाणे उवट्रिए ठियप्पा संखाए परदत्तभोई भिक्खू त्ति वच्चे।सू.५॥ छाया-त्रापि भिक्षुरनुन्नतो विनीतो नामको दान्तो द्रविको व्युत्सृष्टकायः संविधूय विरूपरूपान् परीषहोपसर्गान अध्यात्मयोगशुद्धादानः उपस्थितः स्थितात्मा संख्याय परदत्तभोजी भिक्षुरिति वाच्यः ॥५॥ काय मुनि श्रमण' शब्द से कहा जाता है । तात्पर्य यह है कि इन गुणों और पूर्वोक्त गुणों से युक्त मुनि 'श्रमण' कहलाता है ॥४॥ ___'माहन' शब्द का जो प्रवृत्ति निमित्त पहले कहा चुका है, अर्थात् जिन गुणों के कारण 'माहन' पद् की वाच्यता निरूपित की गई है, उनका 'श्रमण' में भी होना बतलाया गया है। आशय यह है कि जैसे माहन के गुण श्रमण में होना आवश्यक है, उसी प्रकार श्रमण के समस्त गुण 'भिक्षु' में भी होने चाहिए। इस आशय से आगे कहते हैं 'एत्य वि' इत्यादि। કારણોથી દૂર થઈ જાય, એવા દાન્ત, કવિક, અને વ્યસૃષ્ટકાય મુનિ “શ્રમણ શબ્દથી કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે–આ ગુણે અને પૂર્વોક્ત ગુણોથી યુક્ત મુનિ શ્રમણ उपाय छे. ॥४॥ __ 'माहन' शारे प्रवृत्ति निमित्त ५३ai sa छे. अर्थात् रे ગુણને કારણે “માહન' પદનું વાસ્થપણું નિરૂપિત કરવામાં આવેલ છે, તે ગુણો શ્રમણમાં પણ હેવાનું કહેલ છે. કહેવાનો આશય એ છે કે જેમ સાહન ના ગુણ “શ્રમણમાં હોવાનું જરૂરી છે, એ જ પ્રમાણે શ્રમણના સઘળા ગુણે ભિક્ષુ' માં પણ હોવા જોઈએ. એ આશયથી આગળ કહે છે, 'एत्य वि' या શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૩

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