Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 491
________________ ४८० सूत्रकृताङ्गसूत्र मूलम्-से सुद्धसुत्ते उवहाणवं च धम्म चे जे विदेइ तत्थ तत्थ। आदेज्जर्वक कुसले वियत्ते से रिहाइ भासित समाहि॥२७॥ छाया-स शुद्धमूत्र उपधानवांश्च धर्म च यो विन्दति तत्र तत्र । आदेयवाक्यः कुशलो व्यक्तः सोऽर्हति भाषितुं तं समाधिम् ॥२७॥ योग्य हो सो बोले। तथा गुरुमुख से जो सुना हो वही बाले, अन्यथा नहीं ॥२६॥ 'से सुद्धसुत्ते' इत्यादि। शब्दार्थ-'से-सः' यथावस्थित आगम का कथन करने वाला 'सद्धसुत्तो-शुद्धसूत्रः शुद्ध सूत्र को कहने वाला तथा 'उपहाणवं चउपधानवान्' शास्त्रोक्त तपका आचरण करने वाला 'तत्थ तत्थ-तत्र तत्र' आज्ञा से ग्रहण करने योग्य स्थल में आज्ञासे ग्रहण करे इस प्रकार 'जे-यः' जो साधु 'धम्म-धर्मम्' श्रुतचारित्र रूप धर्मको 'विदतिविन्दति' प्राप्त करता है ऐसा पुरुष 'आदेज्जवक्के-आदेयवाक्या' ग्रहण करने योग्य वाक्य वाला तथा 'कुसले-कुशलः' आगम के प्रति पादन में निपुण 'वियत्ते- व्यक्तः विचार पूर्वक कार्य करनेवाला 'से-स' 'वेसा पुरुष तं समाहि-तं समाधिम्' सर्वज्ञोक्त भाव समाधि को भासिउं-भाषितु इसको कथन करने में 'अरिहाइ-अर्हति' योग्य होता है 'त्तिबेमि-इति ब्रवीमि' ऐसा मैं सुधर्मा स्वामी कहता हूँ ॥२७॥ કરીને જ જે બેલવાને યોગ્ય હોય એજ બોલે તથા ગુરૂ મુખથી જે સાંભળેલ હાય એજ કહે. તેથી અન્ય પ્રકારનું કથન ન કરે. ૨૬ાા से सुद्धसुत्ते' या शाय-से-सः' यथास्थित मनु ४थन ४२वावा. 'सुद्धमुत्तो शुद्धसूत्रः' शुद्ध सूत्रनु ४थन ७२वावाणा तथा 'उबहाणव-उपधानवान्' शास्रोत तपर्नु माय२६५ ४२वावा. 'तत्थ-तत्र' माज्ञाथी अहए। ४२१॥ योग्य स्थमा माशाथी ४९॥ ४२ ॥ शते 'जे-यः' के साधु 'धम्म-धर्मम्' श्रुतयारित्र ३५ धमन 'विदति-विन्दति प्रास ४२ छ. मेवा ५३५ 'आदेज्जवक्के-आदेय. वाक्यः' अहए। ४२१॥ योग्य पाया तथा 'कुसले-कुशलः' भासमाना प्रतिपादन ४२पामा निपुण 'वियत्ते-व्यक्तः' पिया२ पूर आय ४२वापाणे। 'से-मः' मेवे। ५३५ 'तं समाहि-तं समाधिम्' सज्ञात भाव समाधिने 'भासि-भाषितम्' भीगने यन पाभा 'अरिहाइ-अर्हति' योग्य पने छ 'ति बेमि-इति ब्रवीमि' से रीतसुधर्मा स्वामी ४ छु ॥२७॥ श्री सूत्रकृतांग सूत्र : 3

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