Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १३ याथातथ्यस्वरूपनिरूपणम् ३२३ मूलम्-विसोहियं ते अणुकाहयंते, जे आत्तभावेण वियागरेजा।
अट्टाणिया होति बहुगुणाणं, जेणाण संकाइ मुसंवएजा।३। छाया-विशोधितम् ते अनुकथयन्ति, ये आत्मभावेन व्यागृणीयुः ।
____ अस्थानिका भवन्ति बहुगुणानां, ये ज्ञानशङ्कया मृषा वदेयुः ॥३॥ अन्वयार्थः-(ते) ते जमालिपभृतयः 'विसोहिय' विशोधितम्-सकलदोष 'विसोहियं ते अणुकाहयंते' इत्यादि ।
शब्दार्थ-'ते-ते' जमालि आदि निह्नव 'विसोहियं-विशोधितम्' दोषरहित एवं तीर्थकरादिके द्वारा प्ररूपित ऐसे ज्ञानदर्शन चारित्र रूप मोक्ष मार्ग को 'अणुकायंते-अनुकथयन्ति तीर्थंकर की प्ररूपणासे विपरीत प्रतिपादन करते हैं 'जे-ये' जो 'आत्तभावेण-आत्मभावेन' अपनी रुचिके अनुमार 'वियागरेज्जा-व्यागृगीयुः' आचार्य परंपरा से विरुद्ध प्रकार से सूत्रों का अर्थ करते हैं ऐसे वे 'बहूगुणाणं-बहुगुणा. नाम्' अनेक सद्गुणों का 'अट्ठाणिए-अस्थानिकाः' 'होई-भवन्ति' होते हैं 'जे-ये' जो कोई जमालि आदि अपात्र 'णाणसंकाइ-ज्ञानशङ्कया' धीतरागके ज्ञान में शंकाशील होकर 'मुसं वएज्जा-मृषा वदेयुः मिथ्याभाषणकरते हैं वे उत्तम गुणों के पात्र नहीं होते हैं ॥३॥
अन्वयार्थ-वे जमालि वगैरह सकलदोषों से रहित तीर्थंकरों 'विसोहियते अणुकायते' bulls
शार्थ -ते-ते' पूर्वरित भावि पिणेरे निह। 'विसोहिय-विशो. धितम होष रडित अन ती ४२ से ३२ सेवा ज्ञान, ४शन, यात्रि ३५ भोक्षमाग ने 'अणुकाहयते-अनुकथयन्ति' ती ४२नी ५३पायाथी १३ प्रति. पाईन ४२ छ. 'जे-ये' या 'अत्तभावेण-आत्मभावेन' पातानी ३थी प्रभार 'वियागरेजा-व्यागृणीयुः' मायाय ५२५२॥थी १ि३५ शते सूत्रो। म ४३ छ. मेवा तसा बहूगुणाणं-बहुगुणानाम्' भने गुणोना ‘अढाणिए होई-अस्था. निकाः भवन्ति' सस्थान ३५ थाय छे. 'जे-ये' २ मालि विरे मात्र ‘णाणसंकाइ-ज्ञानशङ्कया' वीतरागना शानमा शशील मनी 'मसं. वएज्जा-मृषा वतेयुः' मिथ्या माY 3रे छे. तब्ये। उत्तम गुना पात्र३५ બનતા નથી. એવા
અન્વયાર્થ–તે જમાલિ વિગેરે સઘળા દોષથી રહિત અર્થત નિર્દોષ
શ્રી સૂત્રકૃતાંગ સૂત્રઃ ૩