Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. १३ याथातथ्यस्वरूपनिरूपणम् ३५९ यस्त्वेभिरेव गुणर्मदरशादन्यं तिरस्करोति स न भवति साधुः अपितु साध्वाभास एव स मन्तव्य इति ॥१३॥ मूलम्-एवं ण से होई समाहिपत्ते,
__जे पन्नवं भिक्खू विउक्कसेज्जा। अंहवा वि 'जे लोभमयावलित्ते,
अन्नं जैणं खिंसइ बॉलपन्ने ॥११॥ छाया-एवं न स भाति समाधिमाप्तः, यः प्रज्ञावान भिक्षुयुत्कर्षेत् ।
अथवाऽपि यो लाभमदावलिप्तः, अन्यं जन खिसति बालपज्ञः ॥१४॥ वासित आत्मा वाला होता है। वह सुसाधु है । किन्तु इन्हीं गुणों के कारण अभिमान करके जो दूसरों का अपमान करता है। यह वास्तव में साधु नहीं है । उसे साध्वाभास ही समझना चाहिए ॥१३॥ 'एवं ण से होई' इत्यादि।
शब्दार्थ,-एवं-एवम्' पूर्वोक्त प्रकार से 'से-स' दूसरे का अपमान करनेवाला वह साधु प्रज्ञासे युक्त होने पर भी 'समाहिपत्तेसमाधिप्राप्तः' मोक्ष मार्ग में गमन करनेवाला 'ण होइ-न भवति' नहीं होता है 'जे-य:' जो 'भिक्खू-भिक्षुः' साधु 'पण्णवं-प्रज्ञावान्' बुद्धिमान हो करके भी 'विउक्कसेज्जा-व्युत्कर्षेत्' अभिमान करता है 'अहवावि-अथवाऽपि' अथवा 'जे-य:' जो साधु 'लाभमयावलित्ते-लाभमदावलिप्तः' अपने लाभके मदसे मस्त है 'बालपण्णे-बालप्रज्ञः' मूर्ख છે, તે સુસાધુ છે, પરંતુ આજ ગુણોને કારણે અભિમાન કરીને બીજાઓનું જે અપમાન કરે છે. તે વાસ્તવિક રીતે સાધુ નથી. તેને સાદવાભાસ જ સમજ જોઈએ ૧૩
‘एवं ण से होइ' त्याह
शा---एवं-एवम्' पूर्वात प्रथा 'से-सः' बालगनु अपमान ४२वापाणे ते साधु प्रज्ञावान् वा छतi ५५ 'समाहिपत्ते-समाधिप्राप्तः' भाक्ष भाभा गमन ४२पापा। ‘ण होइ- न भवति' थतेनथी. 'जे-यः' २ 'भिक्खू भिक्षुः' साधु 'पण्णवं-प्रज्ञावान्' भुद्धिमान वा छतi ey 'बिउक्कसेज्जा-व्यु. त्कर्ष येत् अभिमान रे छ. 'अहवा वि-अथवाऽपि' अथ। 'जे-यः' २ साधु 'लाभमयावलित्ते-लाभमदावलिप्तः' पाताना सामना महथी भरत छे ते 'बाल.
श्री सूत्रतांग सूत्र : 3