Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृताङ्गसूत्रे
टीका--'उडूं ऊर्ध्वम् - ऊर्ध्वदिशि वर्त्तमानाः, तथा 'अहे' अधः-अधो दिशि वर्त्तमानाः, तथा - 'तिरिय' तिर्यग्यत्र तत्र दिग् विदिक्षु वा वर्त्तमानाः 'जे के' ये केचित् 'तसथावरा' असा : स्थावराश्च ये जीवाः सन्ति 'सव्वत्य' तत्र सर्वत्र जीवविषये मनोवाक्कायैः 'विरतिम्-माणातिपाताभिवृत्तिम् 'कुज्जा' कुर्यात् एषा प्राणातिपातनिवृत्तिरेव शान्तिकारणत्वात् 'संति' शान्तिः, निर्वाणकारणत्यात् 'निव्वाणं' निर्वाणम् 'आहिये' आख्यातम् - कथितम् । यतो हि विरतिमतः सकाशाम कोऽपि विभेति, नवाऽसौ भवान्तरेऽपि कुतश्चिद् मयप्राप्नोतीति । 'अध ऊर्ध्व दिग्विदिक्षु, त्रसस्थावरजन्तवः । तेपामसिनान्मुक्तिः, सूक्तिः शास्त्रस्य जैनिनः ॥ १॥ इति ॥ १ ॥
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टीका - ऊर्ध्व दिशा में विद्यमान, अधोदिशाओं में विद्यमान तथा तिर्धी दिशाओं और विदिशाओं में विद्यमान जो भी त्रस और स्थावर हैं, उन सब के विषय में मन, वचन, और काय से प्राणातिपात की निवृत्ति करे। यह प्राणातिपात की निवृत्ति ही प्रधान है, क्यों कि वह निर्वाण का कारण होने से निर्वाणरूप कही गई है। यह निवृत्ति स्व पर की शान्ति का कारण होने से शान्ति भी कहलाती है। क्योंकि जो हिंसा से निवृत्त होता है उससे न कोई भय पाता है और न वह स्वयं इस लोक या परलोक में भय को प्राप्त करता है। 'अधो दिशा, ऊर्ध्वदिशा और तिर्धी दिशाओं एवं विदिशाओं में स्थित त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा न करने से मुक्ति होती है, यही जैनशास्त्र की उक्ति है ॥११॥
टीडार्थ – उव' (७५२नी) हिशाभां रडेल । (नीचे) नी दिशाभां रहेस તથા તિી દિશાઓમાં રહેલ જે કોઇ ત્રસ અને સ્થાવર પ્રાણી છે, તે સઘળાના સબધમાં મન, વચન અને કાયાથી પ્રાણાતિપાતની નિવૃત્તિ કરવી, આ પ્રાણાતિપાતની નિવૃત્તી જ પ્રધાન છે. કેમકે-એ નિર્વાણમાક્ષનું કારણ હાવાથી તેને નિર્વાણુ જ કહેલ છે. આ નિવૃત્તિ સ્વપરની શાન્તીનું કારણ હાવાથી શાન્તિ પણ કહેવાય છે, કેમ કે જે હિ'સાથી નિવ્રુત્ત થાય છે, તેનાથી કાઈ ભય પામતા નથી, તેમજ તે પાતે પણ આ લેકમાં કે પરલેાકમાં કેઈથી लय याभतो नथी. 'अधोदिशा, व हिशा, भने तिछी दिशाओ भने વિદિશાઓમાં રહેલા ત્રસ અને સ્થાવર જીવાની હિંસા ન કરવાથી મુક્તિ थाय है, आम जैन शाखनी उडित (प्रथन- सिद्धांत) . ॥११॥
શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૩