Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
________________
२७०
सुत्रकृताङ्गसूत्रे
सर्वशून्यतामतं निराकर्त्तु शास्त्रकारः प्रक्रमते - 'जहाहि अंधे' इत्यादि । मूलम् - जहाहि अंधे सह जोतिणा वि,
वाइ णो पेस्सति हीणणेते ।
"संतंपि ते एंव मंकिरियवाई,
१३
किरिय" में पेस्संति निरुद्रपन्ना ॥८॥ छाया - यथा ह्यन्धः सह ज्योतिषापि, रूपाणि न पश्यति हीननेत्रः । सतीमपि ते एवमक्रियावादिनः- क्रियां न पश्यन्ति निरूद्धप्रज्ञाः | ८ | शून्यतावादी के मत का निराकरण करने के लिए शास्त्रकार कहते हैं- 'जहा हि अंधे' इत्यादि ।
शब्दार्थ –'जहाहि - यथा' जैसे 'अंधे - अन्धः' जन्मान्ध अथवा 'होणने ते - हीन नेत्रः' जन्मके पश्चात् जिनके नेत्र का तेज नष्ट हुवा हो ऐसा कोई पुरुष 'जोइणा वि सह- ज्योतिषापि सह' प्रदीप आदि के प्रकाश के साथ होने पर भी 'रूवाई - रूपाणि' वस्तु के स्वरूपको 'णो परसति न पश्यति' देखता नहीं है ' एवं एवम्' इसीप्रकार 'ते-ते' वे पहले कहे हुए बुद्धिहीन 'अकिरियाबाई - अक्रियावादिनः' अक्रियावादी 'संतंपि सतीमपि विद्यमान 'किरिथं क्रियां' क्रिया को 'ण पसंति- न पश्यन्ति' देखते नहीं हैं वे लोक क्यों नहीं देखते' सो कहते हैं - निरुद्ध पन्ना - निरुद्ध प्रज्ञा:' वे लोग ज्ञानावरणीयादिके उदय होने से जिनके सम्यक ज्ञानादि आच्छादित है ऐसे है શૂન્યતા વાઢિયાના મતનું નિકરણ કરવા માટે શાસ્ત્રકાર કહે છે કે'जहाहि अंधे' इत्यादि
शब्दार्थ –'जहाहि-यथा' प्रेम 'अंधे - अन्धः' भन्मांध अथवा 'हीणनेतेहोननेत्रः' भन्मनी पछी लेनी मांखनुं तेन नाश पाभ्यु होय सेवा आई ३ष 'जोइणावि सह - ज्योतिषापि सह' हीवा विगेरेना अाश साथै हावा छतां पशु ' रुवाई रूपाणि वस्तुना स्व३पने 'णा पस्सति - न पश्यति' देखते। नथी. 'एवं - एवम्' मे४ प्रमाणे 'ते - ते' ते पडेला वामां आवे युद्धि वगरना 'अकिरियावाई - अक्रियावादिनः' अडियावाडीओ 'संत'पि सतीमपि विद्यमान वी 'किरियं क्रियां' डियाने 'ण परसंति-न पश्यन्ति' द्वेष्यता नथी. थे बे हैं। प्रेम द्वेष्यला नथी ? मे छे - 'निरुद्धपन्ना - निरुद्ध प्रज्ञाः' तेथे ज्ञानावरणीયાદિના ઉદય થવાથી જેએના સમ્યક્ જ્ઞાન વિગેરે ઢંકાઈ ગયા છે, એવા
શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૩