Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृतागसूत्रे स्वरूप समाधिमुपदिष्टवन्त स्तीर्थकरादयः । अतो विचारवता यतमानेन पुरुषेण जीवानां विराधनाकारि कर्म परित्यज्य प्रत्रज्यामादाय ज्ञानादिरूपे मोक्षमार्गे यत्नवता भाव्यमिति ॥६॥ मूलम्-सव्वं जगंतू समयाणुपेही,
पियमप्पियं कस्सइ णो करेज्जा। उहाय दीणो य ए॒णो विसन्नो,
संपूर्यणं चैव सिलीयकामी ॥७॥ छाया-सर्व जगत्तु समतानुप्रेक्षी, प्रियममियं कस्यचिन्न कुर्यात् ।
उत्थाय दीनश्च पुनर्विषण्णः, संपूजनं चैव श्लोककामी ।।७। करने के लिए ज्ञानादिमय समाधि का निरूपण किया है। अतएव विचारवान् और यतना परायण पुरुष को जीव विराधना करने वाले कर्म का परित्याग करके, दीक्षा अंगीकार करके, ज्ञानादि रूप मोक्षमार्ग में प्रयत्न शील होना चाहिए ॥६॥
'सव्वं जगंतु समयाणुपेही' इत्यादि।
शब्दार्थ-सव्वं जगंतू-सर्व जगत्' साधु समस्त जगत्को 'समयाणु. पेही-समतानुप्रेक्षी' समभाव से देखे 'कस्सइ-कस्यचित्' किसी का भी 'पियमप्पियं प्रियम प्रियम्' प्रिय और अप्रिय ‘णो करेज्जा-नो कुर्यात्' न करे 'उट्ठाय-उत्थाय' कोई पुरुष प्रत्रयाका स्वीकार करके 'य-च' और 'दीणो य पुणो विसण्णो-दीनश्च पुनर्विषण्ण: कोई पुरुष प्रव्रज्या लेकर परीषह और उपसर्गी की बाधा होने पर दीन हो जाते हैं और જ્ઞાનાદિ મય સમાધિનું નિરૂપણ કરેલ છે. તેથી જ વિચારવાનું અને યતના પરાયણ પુરૂષે જીવ વિરાધના (હિંસા) કરવાવાળા કર્મને ત્યાગ કરીને દીક્ષાને સ્વીકાર કરીને જ્ઞાનાદિ રૂપ મેક્ષ માર્ગમાં પ્રવૃત્તિ યુક્ત થવું જોઈએ. ૧૬ 'सव्वं जगं तु समयाणुपेही' त्या
Av -'सव्वं जगंतू-सर्व जगत्' साधु पू जत्ने 'समयाणुपेहीसमतानुप्रेक्षी' समभार थी तुमे 'कस्सइ-कस्यचित्' नु' ५ 'पियमपियं -प्रियममियम्' प्रिय भय। भप्रिय 'णो करेज्जा-नो कुर्यातू' न ३ 'उद्रायउत्थाय' ६ ५३५ प्रयानो स्वी२५शने 'य-च' भने, 'दीणो य पुणो विसणो-दीनच पुनर्विषण्णः' परीष भने ७५थी पी. थाय त्यारे दीन
શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૩