Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृताङ्गसूत्रे मूलम्-सीहं जहा खुड्डमिंगा चरंता, दूरे चरंती परिसंकमाणा।
एवं तु मेहावि समिक्ख धम्मं, दूरेण पौवं परिवजए जा॥२०॥ छाया-सिंहं यथा क्षुद्र मगाश्चरन्तो, दुरं चरन्ति परिशङ्कमानाः।
एवं तु मेधावी समीक्ष्य धर्म, दूरेण पापं परिवजयेत् ॥२०॥ अन्वयार्थः- (चरंता खुड्डुमिगा सीहं जहा परिसंकमाणा) वने चरन्त:विचम क्षुद्रमृगाः-वन्यपशवः सिहं परिशङ्कमानाः (दूरे चरंती) रेएव देशेचरन्ति-विचरन्ति एवं तु मेहावि' एवं तु क्रमेण मेधावी-मर्यादावान् मुनिः (धम्म समिक्ख) धर्मम्-श्रुतचारित्राख्यं समीक्ष्य पयालोच्य (पाचं दुरेण परिवजएज्जा) पापं कर्म-माणातिपातादिकं दुरेण-दुरत एव परिवर्जयेत्-परित्यजेदिति ॥२०॥
'सी हं जहा खुड्डमिगा चरंता' इत्यादि।
शब्दार्थ--'चरंता खुडुमिगा सीहं जहा परिस हमाणा-चरन्तः क्षुद्रमृगाः सिंहं यथा परिशंकमानाः' वनमें विचरते हुए छोटे मृग जैसे सिंह की आशंकासे 'दूरे चरंति दूरं चरन्ति' दूर ही विचरते हैं 'एवंतु मेहावी-एवं तु मेधावी' इसी प्रकार बुद्धिमान् पुरुष 'धम्म समिक्खधर्म समीक्ष्य' श्रुत चारित्र रूप धर्मको विचार करके 'पाव दूरेण परिन्ध. एजा-पापं दूरेण परिवर्जयेत्' पापकर्म का दूरसे ही त्याग करे ॥२०॥ ___ अन्वयार्थ--जैसे वन में विचरण करने वाले क्षुद्र मृग सिंह की आशंका करते हुए दूर देश में ही विचरण करते हैं, इसी प्रकार मेधावी पुरुष धर्म का विचार करके दूर से ही पापकर्म का त्याग कर दे ॥२०॥ 'सीहं जहा खुडडमिगा चरता' त्या
शहाथ-'चरंदा खुडडमिगा सिहजहा परिसंकमाणा-चरन्तः क्षुद्रमृगाः सिहं यथा परिशंकमानाः' बनमा ३२ता सपा नाना भृग म सिंह विगैरेनी थी 'दरे चरंति-दूरं चरन्ति' (२०४ या ४२ छे. अर्थात् २४ श्ा ४२. 'एवंतु मेहावी-एवं तु मेधावी ४ प्रभा मुद्धिमान ५३५ ‘धम्म समिक्ख-धर्म समीक्ष्य' श्रुत यारित्र ३५ भनी विया२ ४री 'पावं दूरेण परिव्वएज्जापापं दूरेण परिवर्जयेत्' ५५४मनी (२थी । त्याग ४२. ॥२०॥
અન્વયાર્થ–-જેમ વનમાં ચરવા વાળા શુદ્રમૃગ, સિંહની શંકા કરીને તેનાથી દૂરના પ્રદેશમાં જ ફરે છે. એ જ પ્રમાણે બુદ્ધિમાન પુરૂષ ધર્મને વિચાર કરીને દૂરથી જ પાપકર્મને ત્યાગ કરી દે ૨૦
श्री सूत्रता सूत्र : 3