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व्याख्यान में तंबाकू का प्रसंग आ गया। मैंने धूम्रपान को बुरा बताकर उस पर कड़ा प्रहार किया। फलस्वरूप सैकड़ों श्रोताओं ने तंबाकू का त्याग कर दिया। पंडाल के बाहर तंबाकू की दुकान थी। तंबाकू को बुरा समझकर एक भी व्यक्ति दुकान पर नहीं गया। इससे दुकानदार को बहुत नुकसान पहंचा, लेकिन इसके लिए मैं दोषी नहीं हूं। मैंने तो उन व्यक्तियों की वृत्ति बदलने के लिए सहृदयता से उपदेश दिया था, दुकानदार की रोजी-रोटी मारने के लिए नहीं। हां, यदि मेरी वृत्ति दूषित है, मैं दुकानदार को नुकसान पहंचाने के उद्देश्य से लोगों को वहां जाने से रोकता हूं तो वह हिंसा है। वस्तुतः दुकानदार ने गलत धंधा किया, इसलिए वह नुकसान में रहा। अतः आप यह तत्त्व समझें कि हिंसा का अर्थ है-मन, वचन और काया का अनिनत्रण। मन, वाणी और काया पर विवेक का अकुंश न रहे, यह हिंसा है। अहिंसा है-मन, वचन और काया का संयम, अपनी हर प्रवृत्ति पर विवेक का अकुंश। आत्महत्या भयंकर पाप है
हिंसा के संदर्भ में एक बात और समझने की है। जैसे दूसरे प्राणी को मारना हिंसा है, वैसे ही आत्महत्या भी हिंसा है, बल्कि पर-हत्या से भी बड़ा पाप है, भयंकर पाप है। यही कारण है कि हमारे धर्मग्रंथों में इस प्रवृत्ति पर गहरा प्रहार किया गया है।
विद्यार्थी परीक्षा में अनुत्तीर्ण होकर आत्महत्या की बात सोचता है और व्यापारी व्यापार में विफल होकर। बहनें आपस में लड़-झगड़कर आत्महत्या का पथ चुनती हैं, पर यह कोई समाधान नहीं है। कवि ने कहा है
अब तो घबराकर कहते हैं मर जाएंगे।
मरकर भी चैन नहीं मिला तो कहां जाएंगे? अपेक्षित यह है कि व्यक्ति प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थिति का दृढ़ता के साथ मुकाबला करे, उसे समता से सहन करे, आत्म-हत्या न करे। अहिंसा का आदर्श - भगवान महावीर ने मारनेवाले को भी अपना मित्र समझने की बात कही है। उनकी दृष्टि में मारनेवाला हमें सहिष्णुता की साधना का मौका देता है। इसी तरह की बात क्राइस्ट ने कही है-'तुम्हारे एक गाल पर कोई अहिंसा : एक विश्लेषण
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