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देहे दुक्खं महाफलं
भ्रांति की बात चल ही पड़ी तो प्रसंगवश एक भ्रांत धारणा का स्पष्टीकरण और कर दूं । कुछ लोगों की यह भ्रांत धारणा रही है कि जैनधर्म शरीर को कष्ट देना बहुत अच्छा मानता है। इसका आधार है-देहे दुक्खं महाफलं। मुझे लगता है कि इस सिद्धांत को समझने में भयंकर भूल हुई है। शरीर को कष्ट देना ही धर्म है, यह जैन-धर्म का अभिमत कदापि नहीं है। शरीर के साथ किसी का क्या विरोध हो सकता है? वस्तुतः कष्ट भोगने की दृष्टि से क्रिया करना कष्ट-क्रिया है। हमारी हर क्रिया कर्म-निर्जरा और आत्म-पवित्रता के लिए हो, यह अपेक्षा है।
देहे दुक्खं महाफलं का तात्पर्य यह है कि देह में कष्ट उत्पन्न होने पर उसे समभावपूर्वक सहन करना, महान फल देनेवाला है। हमारे यहां साधु-साध्वियों के बाईस परीषहों का उल्लेख मिलता है। उनमें पहला परीषह है-क्षुधा। साधु-साध्वियां भी शरीरधारी हैं, इसलिए उन्हें भूख लगना बिलकुल स्वाभाविक है, पर मान लिजिए, किसी कारण किसी साधु को कभी भोजन नहीं मिला। अब उसे भूख सहनी होगी। साधक समभावपूर्वक यह कष्ट सहन करता है। इससे उसके कर्मों की प्रचुर निर्जरा होती है। यह कितना बड़ा लाभ है! इसी प्रकार साधु-साध्वियों को प्यास भी लगती है, पर कभी ऐसा प्रसंग भी आता है, जब किसी को समय पर पानी नहीं भी मिलता। ऐसे में उसे अत्यंत कष्ट की स्थिति से होकर गुजरना पड़ता है।
वस्तुतः कष्टों में भी आनंद का अनुभव करना महान साधना है। इसी लिए तो हम कहते हैं, कष्ट आएं तो कतराओ मत, हंस-हंसकर सहन करो, पर हमारे भाई-बहिन समझते हैं कि शरीर को कष्ट देना ही धर्म है, इसलिए वे जैसे-तैसे तपस्या करना चाहते हैं। अठाई करने से आठों ही कर्मों का क्षय होता है, यह मानकर दूसरों पर वजन डालकर भी तपस्या करते हैं, लेकिन मैं तो मानता हूं कि तपस्या उस सीमा तक ही करनी चाहिए, जिस सीमा तक मानसिक प्रसन्नता रह सके। मैंने तो अपने जीवन में एक तेला (तीन दिवस का उपवास) किया है। उसमें तीनों दिन व्याख्यान दिया है। पारणे के दिन भी यह क्रम चला है। भगवान ने कभी नहीं कहा कि औरों को कष्ट देकर भी तपस्या करते रहो। औरों को कष्ट देना तो हिंसा है, लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि आप तपस्या को
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आगे की सुधि लेइ
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